बुधवार, 9 दिसंबर 2009

काला बंदर और आतंकवाद

काला बंदर और आतंकवाद

जनता के दो भागों में बंटने के बाद चौधरी चरण सिंह और मोरारजी देसाई के बीच जब शक्ति प्रदर्शन का दौर चल रहा था और दोनों ही पार्टी कांग्रेस के इंदिरा गांधी से आंतरिक रूप से सहयोग मांग रहे थे, लेकिन खुले तौर पर दोंनो में से कोई भी सहयोग लेने से इंकार कर रहा था, क्योंकि आपातकाल की ज्यादती के कारण इंदिरा गांधी बहुत बदनाम हो चुकी थी। उसी वक्त एक पत्र ने टिप्पणी की थी कि इंदिरा गांधी उस खुबसूरत लड़की के समान है, जिससे मोहब्बत तो हर कोई करना चाहता है लेकिन शादी के लिए कोई तैयार नहीं है।

इसी संदर्भ में आज के आतंकवाद को लिया जा सकता है कि विश्व की तमाम हस्ती अपने प्रतिद्वन्द्वी को पछाड़ाने के लिए गरीब-सर्वहारा का इस्तेमाल तो करता है लेकिन सर्वहारा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है। आतंकवाद का मूर्त रूप सर्वहारा ही होता है कोई करोड़पति नहीं, भले ही कोई करोड़पति पैसे का इस्तेमाल इसमें करता हो जैसे मार्क्स के मार्क्सवाद को प्रचारित करने में फ्रेडरिक एंगेल्स ने मदद किया था, लेकिन सर्वहार की असली लड़ाई सर्वहारा ही लड़ता है क्योंकि सरजमीं पर सर्वहारा ही होता है। उसी प्रकार आतंकवाद भी अन्याय और अत्याचार का प्रतिकात्मक रूप ही है जिसकी सत्ता का की रूप नहीं होता है, आज उसके खिलाफ विश्व के तमाम शासक वर्ग एक हो गए हैं। भूतपूर्व में ओसामा बिन लादेन भी अमेरिकी सीआईए (CIA) एजेंट था और अमेरिका के द्वारा ही धन और हथियारों से मदद दिया गया था, अफगानिस्तान से सोवियत रूस की सेना को निकाल बाहर करने के लिए। ऐसी स्थिति में विश्व का सबसे बड़ा आतंक तो स्वयं अमेरिका ही है। फिर अमेरिकी आतंकवाद (26/11) को कबुल कराने के लिए आज विश्व के सारे शासक वर्ग अमेरिकी आतंक के साथ कैसे एक हो गया है और सारी दुनिया से आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर हर देश में नागरिक-अधिकार में कटौती की जा रही है। कहने का मतलब यह है कि सर्वहारा के अधिकार को कुचलने के लिए यह एकमात्र बहाना है।

आज सारी दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है और अमेरिका जो सारी दुनिया से आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर धन आवंटित कर रहा है, स्वयं मंदी के दौर से गुजर रहा है और उसी मंदी को स्वीकार कराने के लिए नागरिक-अधिकार में कटौती कर रहा है।

भारत में विकास के लिए सरकार कहती है कि पैसा नहीं लेकिन चन्दन तस्कर विरप्पन को पकड़ने के नाम पर हर साल 10 करोड़ का खर्च दिखाया जा रहा था लेकिन विरप्पन आजाद था। भारत की राजधानी दिल्ली से उत्तर प्रदेश और बिहार से मजदूरों को बाहर निकालने के लिए काला बंदर का हौव्वा खड़ा किया गया और वो काला बंदर सिर्फ गरीब मजदूर की झोपड़ी में ही आतंक फैलाता रहा, महल में नहीं। ये हमारे देश का सत्तातंत्र है जिसकी नकेल यहां की जनता के हाथ में नहीं है, पर वो नकेल होनी चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें