मंगलवार, 23 मार्च 2010

विदेशी सहायता का रहस्य

विदेशी सहायता का रहस्य

1962 के दिसंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने अपने भाषण में कहा – सहायता विश्व में अमेरिकी प्रभाव और अमेरिकी नियंत्रण रखने का प्रधान उपाय है। चूंकि सहायता का अधिकांश भाग ऋण होता है। इसलिए ऋण चुकाने का एकमात्र मार्ग है कच्चे माल का निर्यात और कच्चे माल की
कीमत मांग में उतार-चढाव होते रहने के कारण घाटे की संभावना रहती है। इसी घाटे को पूरा करने के लिए पुन ऋण लेने की आवश्यकता होती है और ऋण बना रहता है।

ब्रीटिश प्रो. रॉबिन्स ने कहा कि ऋण को देने का एकमात्र उद्देश्य यही देखना है कि इस ऋण की आवश्यकता सदा के लिए बनी रहे। कहने का मतलब है कि ऋण लेना वाला व्यक्ति हमेशा ऋण के जाल में फंसा ही रहे।

23 जनवरी, 2010 की दैनिक भास्कर में छपी एक खबर के मुताबिक अगले पांच साल में अमेरिका द्वारा पाक को 7.5 अरब डॉलर की असैन्य सहयता दी जाएगी। ये सहायता पाक को हमेशा बनी रहेगी।

विश्व बैंक का कहना है कि पिछले साल भारत में लगभग 35 खरब डॉलर का निवेश हुआ था। जबकि 2008 में 41 खरब डॉलर का निवेश था। (2 फरवरी 2010 की दैनिक भास्कर )। विश्व बैंक इस बात से चितिंत है कि उनका निवेश पिछले साल 2008 की तुलना में 2009 में निवेश घट कैसे गया।

पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने पहली बार पार्टी लाइन से अलग जाकर विश्व बैंक से कर्ज मांगा है। ग्रामीण क्षेत्रों में विकास के लिए राज्य सरकार ने विश्व बैंक से दो सौ करोड़ डॉलर मांगे हैं। बंगाल सरकार के सूत्रों के अनुसार इस कर्ज में विश्व बैंक कोई ब्याज नहीं लेगा। ( 14-03-2010 नई दुनिया )

सोमवार, 15 मार्च 2010

क्या होता है ये वाद

क्या होता है ये वाद
नक्सलवाद, माओवाद, उग्रवाद और आतंकवाद

                                   भाग 3
आतंकवाद को अभी तक परिभाषित नहीं किया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ में जब इसे परिभाषित करने की बात आई तो अमेरिका ने इसे मानने से इनकार कर दिया क्योंकि अमेरिका स्वतन्त्रता आन्दोलन को भी आतंकवाद करार देता है और अन्य देश स्वतन्त्रता आन्दोलन को आतंकवाद की श्रेणी में रखने के लिए तैयार नहीं हैं, फिर भी सामान्य तौर पर राज्य के विरूद्ध जब गुरिल्ला युद्ध किया जाता है तो राज्य के द्वारा उसे आतंकवाद घोषित किया जाता है क्योंकि राज्य शक्तिशाली होता है। आज के समय में या कहें कि वर्तमान समय में कोई भी समूह राज्य के खिलाफ आमने- सामने की लड़ाई नहीं जीत सकता है। इसलिए जनता का एक छोटा सा हिस्सा गुरिल्ला युद्ध ही करता है और आतंक पैदा करता है। इसलिए उसे आतंकवादी करार दिया जाता है जैसे अपने समय सन 1627 में शिवाजी भी गुरिल्ला युद्ध के द्वारा ही औरंगजेब को परास्त कर अपना राज्य स्थापित कर पाए थे।

12 से 14 सितंबर 2005 को न्यूयार्क में 180 देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की 60 वीं वर्षगांठ मनाई। इसमें अमेरिका और ब्रिटेन ने आतंकवाद का मुद्दे बड़े जोर शोर से उठाया लेकिन जब इसे परिभाषित करने की बात आई तो वे पीछे हट गए। टोनी ब्लेयर का सुझाव था कि आतंकवाद को और ज्यादा गैर-कानूनी करार दिया जाए। ब्रिटेन के प्रस्ताव का पाकिस्तन सहित अनेक इस्लामिक देशों ने विरोध किया। फिलिस्तीन मुक्ति आन्दोलन के कारण अरब जगत ने भी इसमें असहमति जतायी। इस प्रकार आतंकवाद को परिभाषित होने का मौका संयुक्त राष्ट्र संघ में भी नहीं मिल पाया।

9 मार्च 2010 को दैनिक भास्कर में छपी एक खबर के अनुसार असम राज्य सरकार विभिन्न शिविरों में रह रहे करीब 2500 उग्रवादियों के भोजन पर हर महीने 75 लाख रूपय खर्च कर रही है। ऐसा असम में शांति प्रक्रिया में उग्रवादियों के शामिल होने के तहत किया जा रहा है। अगर उग्रवादी इतने ही अधिक खतरनाक होते हैं तो फिर उन्हें जीवति रखने की जरूरत ही क्या है, सरकार को तो उन्हें मार देना चाहिए ?

मुद्दा वाद है या वादी। सरकार के द्वारा ज्यादा जोर वादी पर दिया जाता है यानी उसके द्वारा किए गए कामों पर। वाद पर जोर नहीं दिया जाता है जबकि समझने की जरूरत वाद को है, वादी तो हमारे समाने होता है उसके द्वारा किया गया काम दिखता है लेकिन वाद नहीं दिखता है, वो छिपा हुआ होता है। वाद का प्रदर्शन किया गया कार्य होता है जो वादी को निर्धारित करता है।

बिल्ली (cat ) बाघ की मौसी कहलाती है। उस बिल्ली को एक  कमरे में बन्द कर दिया जाता है, जहां से भागने का कोई उपाय नहीं है । कुछ समय के बाद कमरे को खोलकर कुछ आदमी बिल्ली को मारने का प्रयास करता है। जब कमरा बंद था, उस समय तक बिल्ली शांत रहती है या इधर-उधर से बाहर निकलने का प्रयास करती है, लेकिन जब बंद कमरे में उसे मारने का प्रयास किया जाता है तो बिल्ली पहले इधर-उधर भागती है अपनी जान बचाने का प्रयास करती है। छटपटाती है यानी अपने आपको जीवन जीने में असहाय महसूस करती है। जब वो अपनी जान बचाने में असमर्थ पाती है तो आक्रमण का सहारा लेती है।

बिल्ली जब अकेले बंद कमरे में हलचल पैदा करती है तो बाहर बैठा शासक वर्ग उस छटपटाहट को जनता से छुपाता है ताकि जनता कभी यह नहीं जान पाए कि बिल्ली छटापटा क्यों रही है। शासक वर्ग हलचल का नाम पहले वादी देता है ताकि जब शासक वर्ग उस वादी को खत्म करने का प्रयास करे तो जनता शांत रहे और यही समझे कि उसने एक बूरे काम को अंजाम दिया। बिल्ली के द्वारा किया गया हलचल ही तो वाद है और बिल्ली वादी।

वाद को सर्मथन देने वालों को समझना चाहिए कि वाद कोई अच्छी बात नहीं होती है। वाद सिर्फ और सिर्फ जनता की छटपटाहट का नाम है यानी जनता जब अपने आपको जीने में असहाय महसूस करती है।

                                         समाप्त

क्या होता है ये वाद

क्या होता है ये वाद
नक्सलवाद, माओवाद, उग्रवाद और आतंकवाद

                                     भाग 2
अंग्रेजी राज में दलित, आदिवासी कोल, भील आदि जनजातियों ने ही जन विद्रोह किया था और वह भी भारतीय जमींदारों के खिलाफ जिसे सुविधाभोगी वर्ग ने आजादी की लड़ाई कहा था। गरीब जनता को आजादी से क्या मतलब, वह तो उस समय भी गुलाम थी और आज भी गुलाम है। इसलिए अगर सुविधाभोगी वर्ग अपने को आजाद रखना चाहता है तो उसे 85 करोड़ जनता को जीने का अधिकार देना ही होगा। अन्यथा देश 50 प्रतिशत गुलाम हो चुका है। देश को विकसित होने का क्या अर्थ जब देश की जनता यानी देशवासी ही जीवन जीने में अपने आप को असहाय महसूस करें। जनकल्याण के नाम पर 85 फीसदी पैसे का लूट नौकरशाहों के द्वारा होता है इसलिए जनकल्याण की सारी योजनाओं को बन्द कर जनता से सीधे काम लेकर उसकी क्रय शक्ति को बढ़ाना चाहिए।

अत: सरकार को चाहिए कि रोटी, कपड़ा और मकान जनता को उपलब्ध होने की स्थिति में लाने के लिए जनता के क्रय शक्ति में वृद्धि करें नहीं तो सिर्फ कुछ को भीख देने से काम नहीं चलेगा। किसान और खेतिहर मजदूर एक दूसरे पर आश्रित होता है। कृषि उत्पादन का मूल्य अगर हासिए पर होगा तो स्व्यं किसान भी खेतिहर मजदूर को जीने लायक मजदूरी नहीं दे सकेगा और वैसी स्थिति में ग्रामीण मजदूर शहर की ओर पलायन करेगा और बेरोजगार होने पर अराजकता को जन्म देगा और फिर आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद आदि नाम लेकर जनता की हत्या की जाएगी और फिर अशांति, अराजकता का दौर शुरू हो जाएगा।

जब तक शासन में सामाजिक न्याय, धर्म निरपेक्षता और जनवादीकरण नहीं होगा। देश में आतंकवाद, नक्सवाद उग्रवाद की समस्या से निजात नहीं मिल सकता है और देश बुरी तरह से गुलामी की जंजीर में जकड़ जाएगा और हम अपनी आजादी खो देंग। अभी कुछ समय पहले एक अमेरिकन कंपनी ने जांच के नाम पर पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम को अपमानित किया और भारत सरकार डर के मारे इस बात की चर्चा तक नहीं कर सकी। क्या हम किसी पश्चिमी देश के राष्ट्राध्यक्ष को जांच के घेरे में ले सकते हैं। याद रहे कि किसी देश की रक्षा उस देश का किसान मजदूर ही कर सकता है सेना नहीं। सेना सिर्फ राज्य की रक्षा कर सकती है देश की रक्षा नहीं। एक हालिया उदाहरण अफ्रीकी देश नाइजर का है जहां से मंत्रिमंडल की बैठक से राष्ट्रपति को गिरफ्तार कर सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया और देश का संविधान रद्द कर कर दिया। टेलीविजन पर सेना के प्रवक्ता ने तख्तपलट की जानकारी देते हुए जनता यानी किसान-मजदूर से शांत रहने की अपील की है। अगर सेना ही सब कुछ है तो फिर सेना को जनता से अपील करने की जरूरत ही क्या है। ध्यान रहे कि किसी भी देश की गुलामी उस देश के देशवासी पर निर्भर करती है जो कि किसान-मजदूर होता है सेना पर नहीं।


                                       क्रमश: जारी है....

क्या होता है ये वाद

क्या होता है ये वाद
नक्सलवाद, माओवाद, उग्रवाद और आतंकवाद

                                 भाग 1


किसी भी घटना की व्याख्या दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। इसलिए नक्सलवाद की व्याख्या भी एक राजनीतिज्ञ की नजर में अपराध है। शासक वर्ग की नजर में देशद्रोह है जबकि एक दार्शनिक की नजर में भौतिक प्रगति के लिए आवश्यक तत्व है। जैसा कि भूतपूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने धर्म तुलनात्मक दृष्टि में लिखे हैं कि - थोड़ी सी भौतिक प्रगति के लिए अनेक भौतिक ........ की आवश्यकता होती है जिसे हम क्रांति, विद्रोह और अराजकता कहते हैं। यही वे साधन हैं जिसके द्वारा प्रगति होती है। पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल की नजर में नक्सलवाद देश के अंदर गरीबों की आवाज है, लोगों की असंतुष्टि है जिसको संतुष्ट करना हमारा काम है।

किसी भी शासन के प्रति प्रतिकार करना शासक वर्ग की नजर में अपराधी, आतंकवादी, उग्रवादी होता है। इसलिए अंग्रेजों की नजर में भगत सिंह, चन्द्रशेखर, सुखदेव आदि अपराधी ही थे। जबकि आजाद भारत में वे सभी क्रांतकारी और देशभक्त कहे जाते हैं। इसलिए नक्सलवाद भी तात्कालिक शासन के प्रति विद्रोह ही है। यद्यपि किसी भी विद्रोही का कोई अपना फायदा नहीं होता है। लेकिन जब छोटे-छोटे समूह में विद्रोह पनपता है तो विद्रोह की लपट से बचने के लिए शासक वर्ग, उस वर्ग के लिए जिसका कि वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं कुछ सुविधा प्रदान कर विद्रोह की आग को थोड़े समय के लिए शांत किया जाता है जबकि बिना विद्रोह के सरकार कोई ध्यान ही नहीं देती है। इसलिए राजनीतिज्ञ की अपेक्षा एक विद्रोही कमान्डर जन कल्याण को अधिक प्रभावित करता है।

पश्चिम बंगाल में माओवाद के नाम से आदिवासी ने जब जनविद्रोह किया तो सरकार ने भी आदिवासियों की समस्या को समझने की कोशिश की। आज देश में 112 करोड़ की आबादी में 85 करोड़ जनता सिर्फ 20 रूपया प्रति व्यक्ति के हिसाब से जी रही है। यह स्थिति जनता के जीने के अधिकार से वंचित करने जैसा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि जीने का मतलब केवल जीना नही है बल्कि जीने के लायक जीना ही जीवन जीना है।

सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात को स्वीकार को किया है कि नक्सली देश के दुश्मन नहीं है बल्कि इसके नागरिक हैं और केन्द्र सरकार से कहा है कि बातचीत करके उनकी समस्याओं को जानना चाहिए और उनको हल करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सलाह दी है कि वह नक्सलवाद को केवल कानून व्यवस्था की समस्या मानने के बजाय उससे सहानुभूतिपूर्वक निपटे। जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी और एसएस निज्जर की बेंच ने केन्द्र से कहा है कि नक्सलवाद के खिलाफ सुरक्षा बलों द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में तो उसने बहुत कुछ सुना है, लेकिन गरीब आदिवासियों के विकास की खातिर लिए गए फैसलों को बारे में कुछ सुनने में नहीं आया। कोर्ट के मुताबिक करीब दो लाख लोग अपने घरों को छोड़कर कौंपों में रह रहे हैं। उनके पास काम करने को कुछ भी नहीं है। (17-02-2010 दैनिक भास्कर ) । अफसोस की बात है कि सुप्रीम कोर्ट भी आदिवासियों के विकास की खातिर लिए गए केन्द्र सरकार के फैसलों के बारे में नहीं जानती है।


                                          क्रमश: जारी है.....

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

ज्योति बसु – एक विलक्षण व्यक्तित्व

ज्योति बसु – एक विलक्षण व्यक्तित्व

                                                  भाग 2


 95 साल की उम्र में ज्योति बसु इस दुनिया से गुजर गए। पूंजीवादी मीडिया किसी व्यक्ति की लोकप्रियता को स्वीकार नहीं करता जबकि आज की तारीख में समूचे बंगाल में उनसे ज्यादा लोकप्रिय नेता नहीं हुआ। बंगाल कम्युनिष्ट पार्टी ज्योति बसु की देन है अन्यथा केरल में तो हर पांच साल में सरकार बदलती रही, लेकिन बंगाल स्थिर रहा। उन्होंने बंगाल में कभी क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद को पनपने नहीं दिया जो की अपने आप में एक बड़ी उपलब्धी है। एक व्यक्ति के रुप में समुचे देश में मील का पत्थर साबित हुए ज्योति बसु जिन्होने पूरे 35 साल तक संयुक्त मोर्चा को स्थापित रखा।

भूमि सुधार के बाद जो दूसरा सबसे बड़ा काम किया वह था गुप्त मतदान से ट्रेड युनियनों की मान्यता। इस प्रकार की मान्यता पहली बार बंगाल में ही लागू की गई। इस विधेयक को लागू करने में केन्द्र में पूरे सात साल तक राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर नहीं किया था। इस विधेयक पर हस्ताक्षर करने की मांग को लेकर अखिल भारतीय आन्दोलन के बाद ही राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किया था। मुख्यमंत्री रहते हुए वे हड़ताली कर्मचारी, मजदूरों की सभा को संबोधित किया करते थे।

1962 में देश पर चीनी हमले की निंदा करने में झिझक दिखाने पर पूरे देश में कम्युनिस्ट विरोधी लहर सी चल पड़ी। प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं की गिरफ्तारियां होने लगी थी। ऐसे समय में उन्होने कम्युनिस्ट पार्टी का पक्ष रखने का कई बार प्रयास किया पर विफल रहे। उन्होने कहा कि यदि एक भी कम्युनिस्ट के त्याग से देश का भला होता है तो वे खुद अपने प्राण देने के लिए तैयार हैं।

1969 में अजय मुखर्जी ( बंगाल कांग्रेस) के मंत्रिमंडल में ज्योति बसु गृहमंत्री थे। दिल्ली के इशारे पर उन्हीं की पुलिस ने उनके खिलाफ विद्रोह कर दिए थे। ज्योति बसु के खिलाफ नारा लगाते हुए 5-10 सिपाही रायटर्स बिल्डिंग के उनके चेम्बर में पहुंच गया। तब ज्योति बसु गरजे- क्या समझते हो, तुम्हारे हाथ में बंदूक है तो जो चाहोगे वही कर लोगे, बाहर निकलो और फिर सिपाही दुम दबारकर बाहर निकले। ये था ज्योति बसु का आत्मबल

प्रणव मुखर्जी के 2004 के लोकसभा चुनाव के बारे में कहना है कि उस समय मनमोहन सिंह सरकार बनवाने में ज्योति बाबू ने सबसे बड़ी भूमिका अदा की थी।

परमाणु करार पर प्रणव मुखर्जी और प्रकाश करात के बीच बातचीत में कहा गया था, विरोध कीजिए पर समर्थन वापस नहीं लीजिए। करात ने कहा था, हम सरकार गिरते देखने चाहते हैं। जबाव मिला तब तो आपको बंगाल में पतन देखना होगा। ( नई दुनिया 27-01-10 )। ऐसे समय में भी ज्योति बसु नहीं चाहते थे कि सरकार गिरे, जबकि उनकी ही पार्टी माकपा सरकार गिराने पर उतारू थी। सरकार गिराने के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना था कि अगर सरकार गिरानी ही थी तो मुझे प्रधानमंत्री बनाया ही क्यों। ज्योति बसु का भी अपनी पार्टी को कहना था कि खिलाफ करो, रोडमार्च निकालो, लेकिन सरकार को मत गिराओ। सरकार गिराने के अंतिम समय तक ज्योति बसु चाहते थे कि माकपा परमाणु समझौते के मुद्दे पर सहमति की संभावनाओं को तलाशे न कि सरकार गिराने की।

अफसोस इस बात का है कि जिस कम्युनिष्ट पार्टी को उन्होंने बंगाल में स्थापित किया, उसी कम्युनिष्ट पार्टी को जब उन्हे पूरे देश में स्थापित करने की बात आई तो वे पीछे हट गए।

                                                                                                                                        समाप्त

ज्योति बसु – एक विलक्षण व्यक्तित्व

ज्योति बसु – एक विलक्षण व्यक्तित्व

                                                  भाग 1
                    

                                                   कार्ल मार्क्स ने भारत के सर्वहारा के बारे में टिप्पणी की थी कि भारत में क्रांति की संभावना नजर नहीं आती, क्योंकि भारतीय सर्वहारा (शूद्र) वर्ण व्यवस्था के तहत सीढ़ीनुमा हजारों भागों में विभाजित है। इसलिए ज्योति बसु के बारे में दक्षिण मीडिया में जब बंगाल की स्थिति और ज्योति बसु के कार्यकाल की चर्चा की जाती है तो ज्योति बसु के लम्बे कार्यकाल को नकारा साबित करने की कोशिश की जाती है। ये कहा जाता है कि ज्योति बसु ने मुख्यमंत्री रहते हुए पश्चिम बंगाल का कोई भला नहीं किया अगर गलती से 1996 में प्रधानमंत्री बन गए होते तो संभव है कि भारत का वही हाल करते जो पश्चिम बंगाल का किए।

विरोध करने वाले इस बात को भूल जाते हैं कि ज्योति बसु भारत के माओत्से तुंग, लेनिन या होची मिन्ह नहीं थे क्योंकि इन सबने क्रांति या एक लंबी लड़ाई के बाद ही सत्ता को प्राप्त किए थे। कहने का मतलब है कि लड़कर उन्होंने तख्तापलट किया था। जिस तरह चीन में सर्वहारा क्रांति हुइ थी या फिर रूस में 1917 में क्रांति हुई थी, क्या उसी प्रकार की कोइ क्रांति बंगाल में ज्योति बसु के द्वारा हुई थी, जो ज्योति बसु से हम माओत्से तुंग, लेनिन या होची मिन्ह के कार्यों जैसा स्वप्न देखने लगते हैं। ज्योति बसु ने कोई क्रांति करके सत्ता को नहीं प्राप्त किए थे जो कि सत्ता में आने के बाद कोई आमूल-चूल परिवर्तन करते। ज्यति बसु सत्ता में भागीदारी के तौर पर आए थे न कि कोई क्रांति करके।

इसलिए ज्योति बसु से विशेष प्राप्ति की आकांक्षा रखना भी ठीक नहीं। लेकिन एक व्यक्ति जो इंगलैंड बैरिस्टरी पढ़ने गया और मार्क्सवादी होकर लौटा और 70 के दशक में बंगाल की शोषित सर्वहारा को संगठित किया जिसका फल था खुद 23 साल शासन और 32 साल से अधिक समय तक बंगाल में स्थिर शासन। पिता उन्हें अंग्रेजों की प्रशासनिक सेवा आइसीएस का अफसर देखना चाहते थे। आइसीएस की परीक्षा में विफल होने के बाद उन्हें बैरिस्टरी बनाने के उद्देश्य से 1935 में कानून की पढ़ाई करने के लिए लंदन भेजा गया था। वहां वे ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के भारतवंशी नेता रजनी पाम दत्त के संपर्क में आए। वहां से 1940 में स्वदेश लौटने पर ज्योति बसु राजनीति में उतरने का फैसला कर लिया और आजीवन शोषित सर्वहारा के लिए लड़ते रहे।

आजाद भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत जो सबसे बड़ा काम उन्होंने किया था वह था भूमि सुधार कानून को बनाकर बंटाईदारी बिल को पास करना। इस कानून से 15 लाख परिवारों को एक तरह से उन्होंने जमीन का मालिक बना दिया। ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि भारतीय सर्वहारा को भूस्वामी भूमि से वंचित न कर सके। लेकिन उनके बाद उन्हीं की पार्टी के मु प्रतिक्रियावादी बनकर अपने ही समर्थक दलित - आदिवासी को नक्सलपंथी कहकर जीने के अधिकार से वंचित करता है। स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी न लाने के लिए उनकी आलोचना होती है। आलोचना करने वालों को जानना चाहिए कि दुनिया के किसी भी विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र के बच्चों को विदेशी माध्यम से नहीं पढ़ाया जाता है। राज्य के औद्योगिकीकरण के लिए उनकी आलोचना होती है। लोगों को जानना चाहिए कि भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई मे अगर देश का सबसे प्रतिष्ठित होटल ताज है तो उसी मुंबई में एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी भी है। कर्नाटक की राजधानी बंगलोर जो भारत की सिलिकॉन वैली कहलाती है, बंगलोर को छोड़कर क्या कोई दूसरा डेवलप शहर है पूरे कर्नाटक में।

ज्योति बसु और साम्यवादी दल दोनों को अलग करके देखने की जरूरत है क्योंकि कम्युनिष्ट घोषणा पत्र के अनुसार भारत में समाजवादी दल नहीं बल्कि सामंती समाजवाद है। जिसका नेतृत्व द्विज वर्ग के हाथ में है और जो समुचे पोलित ब्यूरो में स्थापित है जिसे पार्टी का नाम दिया जाता है। इसलिए 1996 में एक ऐसी स्थिति बन गई थी जिसमें संयुक्त मोर्चा के सारे नेता उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए बेताब थे। पार्टी के वरिष्ठ नेता हरकिशन सिंह सुरजित व कुछ अन्य कुछ लोग चाहते थे कि ज्योति बसु प्रधानमंत्री बन जाए लेकिन पोलित ब्यूरो के ज्यादातर सदस्य इसका विरोध कर रहे थे। पार्टी के बाहर के लोगो ने भी जिसमें मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद , वी.पी सिंह, चन्द्रशेखर, देवगौड़ा और करूणानिधि ने उन्हे प्रधानमंत्री बनने के लिए स्वीकार कर लिया था। इसके बावजूद भी उन्हीं की पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने से वंचित कर दिया, जिसे ज्योति बसु ने एतिहासिक भूल कहा था।

                                                                                                                               क्रमश: जारी है........

बुधवार, 10 मार्च 2010

किसकी और कैसी विदेश नीति

किसकी और कैसी विदेश नीति

आजादी के समय 1947 में विश्व दो समुह में बंटा था एक का अगुवा रूस था और दूसरे का अमेरिका। रूस प्रगतिशील राष्ट्र और आजादी का जंग लड़ने वाले देश को रूस सहायता करता था। वे सभी देश रुस के समुह में थे और तमाम पूंजीवादी देश अमेरिका के पक्ष में गोलबंद था। एक साम्यवाद का समर्थक माना जाता था, दूसरे को पूंजीवाद का।

इसलिए उस समय बिना युद्ध के ही मानसिक युद्ध जारी था जिसे कोल्डवार शीतयुद्ध कहा जाता था भारत इन दोनों समुहों से अपने को अलग रखा जिसे तटस्थता की नीति कहते हैं भारत अभी तक तटस्था की नीति पर ही चल रहा था लेकिन सोवियत रूस के विघटन होने के बाद अमेरिका एकमात्र शक्ति का केन्द्र बन गया और भारत धीरे-धीरे अमेरिका के पक्ष में अधीन होता चला गया।

पाकिस्तान शुरू से ही अमेरिका के पक्ष में था इसलिए अमेरिका हमेशा पाकिस्तान का पक्ष लेता रहा और कश्मीर के बहाने दोनों के बीच में भारत पर दबाव की राजनीति के तहत काम करता रहा है। भारत अमेरिका परमाणु समझौता इसी का नतीजा है । और दिन-प्रतिदिन अमेरिका के गिरफ्त में जा रहा है अभी चूंकि चीन ताकतवर देश के रूप में उभरा है। इसलिए अमेरिका साम्यवादी चीन के मुकाबले भारत को इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है।