बुधवार, 30 दिसंबर 2009

सवाल

सारे मीडिया में पूरे देश में विकास की ही चर्चा होती रहती है कि देश विकास कर रहा है, विकास के रास्ते पर अग्रसर है। फिर भी मानव सूचकांक में देश पहले 182 देशों में से 126वें स्थान पर फिर 128वें स्थान पर, और अब 134वें स्थान पर है तो फिर विकास किसका हुआ।
दूसरी ओर प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति 20 रूपये पर जीवन जीने की संख्या पहले 80 करोड़ था, फिर 84 करोड़ हुआ, अब 93 करोड़ हो गया है, फिर भी मीडिया में विकास की चर्चा होती है। विनाश की क्यों नहीं ? ऐसे में विकास किस देश का हो रहा है और विनाश किस देश का ?

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

विरोधों की एकता और संघर्ष

विरोधों की एकता और संघर्ष

कार्ल मार्क्स ने विरोधों की एकता संघर्ष में मजदूर और पूंजीपति के बीच एकता और संघर्ष को एक साथ पिरोया है, क्योंकि पूंजी के विकास के पलस्वरूप ही सर्वहारा वर्ग का जन्म होता है। दूसरी ओर सर्वहारा का हमेशा पूंजीपति वर्ग से ही टकराहट होती है। यही नियम भौतिक विज्ञान का है कि एक ही बल जो केन्द्र पर लगता है। वही बल परिधि की ओर भी लगता है जैसे अंगुली पर जो रिंग से पत्थर को जहां एक तरफ अपनी ओर खींचता है वहीं दूसरी तरफ पत्थर भी अंगुली से दूर भागना चाहता है।

यही बात व्यवसायी और पुरोहित चाहे वह हिन्दू पुरोहित हो या मुसलमान पुरोहित हो, पर भी लागू होता है। आज एक तरफ पुरोहित वर्ग पुरातन की ओर वापस जाने का जोर मार रहा है। वहीं दूसरी ओर व्यवसायी जो आधुनिकता का प्रतीक है, हर पुरानी जीवन पद्धति को बदलकर नई जीवन पद्धति की ओर भाग रहा है। जहां प्रतिदिन फैशन का शो रूम खोलकर व्यवसायी अपने व्यापार के अनुकुल बनाता है। इसलिए नयी और पुरातन, व्यवसायी और पुरोहित वर्ग के बीच टकराहट होती है।
जब गरीब जनता के जीने की हक बात आती है तो ये दोंनो वर्ग एक साथ हो जाते हैं। यही व्यवसायी वर्ग हर काल में पुरोहित वर्ग का खुराक – मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर का निर्माण पुरोहित वर्ग के लिए किया है और पुरोहित वर्ग के हर सुख-सुविधा का ख्याल रखा। इसलिए पुरोहित और व्यवसायी वर्ग आपस में टकराता भी और दोनों का हित एक साथ रहने में भी है।

आज देश में धर्म प्रचार के लिए पुरोहित वर्ग को व्यवसायी वर्ग से भरपूर सहयोग प्राप्त हो रहा है। वहीं पुरोहित वर्ग के द्वारा व्यवसायी को भरपूर सहयोग पूंजी के उदारीकरण के रूप में मिल रहा है। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से टेलीविजन में भक्ति का शोर मच रहा है।
यही है विरोधों की एकता और संघर्ष का अंतर्द्वन्द्व। हिन्दुस्तान में पूरे 700 वर्ष तक मुसलमानों का शासन रहा, लेकिन भारत का पुरोहित वर्ग कभी भी इस्लामी शासन के खिलाफ विद्रोह नहीं किया, जबकि बौद्ध शासन को खत्म करने के लिए हर हथकंडे अपनाए।

विश्व हिन्दू परिषद और तालिबान के बीच एक गहरा रिश्ता है, दोंनो का ड्रेस आन्दोलन एक तरह का है। तालिबान जहां मुस्लिम महिला को बुर्का पहनने के लिए बाध्य करता है, वहीं विश्व हिन्दू परिषद हिन्दू लड़की को एक खास किस्म का ड्रेस पहनने के लिए आन्दोलन करता है। यही है विश्व के सारे पुरोहित वर्ग जो एक पुरातन प्रतीक को पहचान बनाना चाहता है और पूंजीपति व्यवसायी जो आधुनिकता को प्रतीक बनाना चाहता है, के बीच अंतर्द्वन्द्व।

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

अराजकता और शांति

अरजकता और शांति

जीव विज्ञान की प्रयोगशाला में मेढक के शरीर को चिड़फार करने से पहले उसे क्लोरोफार्म सुंघाया जाता है जिससे कि चीड़फार के दौरान मेढक छटपटाए नहीं, इससे चिड़फार करने में और मानव शरीर विज्ञान को समझने में सुविधा होती है। इसी तरह मानव शरीर पर मेडिसीन (दवाई) का असर जानने के लिए बन्दर एवं जेल के कैदी पर प्रयोग किया जाता है। क्योंकि बन्दर और कैदी का अपना स्तित्व नहीं होता है। उसी प्रकार समाज विज्ञान में कोई प्रयोग करने के लिए शासक वर्ग दो वर्ग को अपना साधन बनाता है, एक है दलित वर्ग और दूसरा नारी। ये दोनों ही वर्ग मूक वर्ग होते हैं, इसलिए पूरे देश में राजसत्ता के संघर्ष में प्रयोग के लिए इसी दो वर्ग को निशाना बनाया जाता है।

आज कोई भी वर्ग अपने प्रतिद्वन्द्वी को सत्ता से हटाने के लिए दलित और नारी को ही अपना हथियार बनाता है और अखबार के माध्यम से दलित और नारी पर अत्याचार की कहानी बताता है और देश में अराजकता की सुरीली राग छेड़ता है। लेकिन शासक वर्ग अराजकता से भयभीत क्यों है ?

इसे समझने के लिए भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जो एक दार्शनिक के अंदाज से धर्म तुलनात्मक दृष्टि में लिखते हैं कि- अराजकता और विद्रोह किसी भी समाज की प्रगति के लिए पहली शर्त है और इसके बगैर प्रगति नहीं हो सकती है। जाहिर है कोई भी शासक वर्ग जड़ता के सिद्धांत से अभिभूत होता है और वह यथास्थिति बनाए रखना चाहता है जिससे कि उसकी स्थिति में परिवर्तन न हो। इसलिए तमाम पूंजीवादी चाटुकार बुद्धिजीवी जो बिना श्रम के जीते हैं और अपनी लेखनी को बेचकर समाज के परिवर्तन विरोधी शक्ति के साथ एकाकार होकर शांति की चाह में भटकते हैं और हायतौबा मचाते हैं। जबकि इसी बुद्धजीवी वर्ग के द्वारा मूक जनता को क्लोरोफार्म सुंघाया जाता है। मूक जनता को शांत रहने के लिए आज पूरे देश को विदेशों के हाथों बेचा जा रहा है। जनता जीने में असमर्थ हो रही है और बुद्धिजीवी जनता को शांति और धर्म का घूंट पिला रही है जिससे कि आम जनता अचेतन अवस्था में पड़ी रहे। यही परिवर्तन विरोधी शक्ति पूरे देश में जनता को धर्म का अफीम खिलाकर मंदिर- मस्जिद में अचेतन अवस्था में रहने के लिए विवश करता है और स्वयं संपूर्ण धरती का भोग करता है। लेकिन भूख से तड़पती भूखी जनता को असहनीय पीड़ा और छटपटाहट होती है तो उसे ही अराजकता कहा जाता है और यही अराजकता जब उनके लूट में खलल पैदा करती है तो धर्म के ठेकेदार का सहारा लिया जाता है। उनके लूट में खलल पैदा न हो, इसलिए ये शासक वर्ग अराजकता से भयभीत होते हैं।

देश के किसान मजदूर का बेटा देश की रक्षा में हमेशा तत्पर रहता है, उसी सैनिक को बंग्लादेश की सेना के द्वारा जघन्य हत्या कर दी जाती है फिर भी शांति का पाठ पढाया जाता है, और जब अभिजात वर्ग का बेटा हवाई जहाज में अपहृत होता है तो सारा प्रेस जगत और इलोक्ट्रॉनिक मीडिया हायतौबा मचाकर देश के विदेश मंत्री को आतंकवाद के मुखिया को साथ लेकर अफगानिस्तान की घाट पर मुक्त कराने के लिए प्रेरिता करता है।

यही है अराजकता और शांति का अंतर्द्वन्द्व

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

धर्मनिरपेक्षता बनाम पंथनिरपेक्षता

धर्मनिरपेक्षता बनाम पंथनिरपेक्षता

प्राचीनकाल में राजसत्ता में धर्मसत्ता की भागीदारी अनिवार्य रूप से रहती थी। साधु-संत और पुजारी सलाहकार के रूप में हावी रहता था। बगैर साधु-संत के राजा एक कदम आगे नहीं जा सकता था और पुरोहित वर्ग का ही दबदबा रहता था। इसलिए जब ईसा मसीह ने जनता के पक्ष में आवाज उठाया तो उन्हें धर्म विद्रोही घोषित कर राजा के द्वारा उन्हें फांसी पर लटकाया गया था। आज भी उनकी कब्र पर धर्मद्रोही शब्द ही अंकित है। यही हाल महान वैज्ञानिक गैलिलयों का था जब उसने प्रतिपादित किया कि पृथ्वी ही सूर्य के चारों ओर भ्रमण (चक्कर) लगाती है और सूर्य स्थिर है तो पुरोहित वर्ग ने मौत का फतवा जारी किया और अपनी बातों को वापस लेने के बावजूद उन्हें जेल की सजा हुई। उसी मौत के फतवे को इसाई चर्च का प्रधान वेटिकन सिटी का पोप पूरे 400 साल के बाद लगभग 20-30 साल पहले वापस लिया, जब दुनिया में विज्ञान सम्मत मान्य हुआ कि पृथ्वी ही सूर्य का चक्कर लगाती है।

 समय के साथ चर्च की शक्ति का ह्रास हुआ। इसलिए जब औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजीवादी लोकतंत्र मजबूत स्थिति में आया तो राजसत्ता में धर्म के हस्तक्षेप को अमान्य कर दिया गया और साधु-संत, पुजारी को जो सांसारिक कार्यों से विमुख रहता है, राजनीति में धर्म के हस्तक्षेप को अमान्य कर दिया। इसे ही हम धर्मनिरपेक्षता के नाम से जानते हैं। लोकतंत्र में राज्य का कोई धर्म नहीं होता है इसलिए राजकाज के कार्यों में धर्म चाहे कोई हो या धर्मसमुह हो, हस्तक्षेर को अस्वीकार कर दिया गया जिसे हम धर्मनिरपेक्षता के नाम से जानते हैं।

पंथनिरपेक्षता- किसी देश का राजधर्म भले हो या न हो, लेकिन अन्य धर्म (पंथ) के प्रति कोई दुर्भावना नहीं होगी और राजकार्य में समान रूप से भागीदारी स्वीकार होगी और अपने-अपने पंथ का प्रचार कर सकते है जैसा कि लोकसभा चुनाव के पूर्व आरएसएस के राजनीतिक मंच के प्रधान लालकृष्ण आडवाणी ने करीब एक हजार साधु-संत, महंतों को पत्र भेजा था कि वे राजकार्य में सलाह देने के लिए सलाहकार मंडल का गठन करेंगे और सलाहकार मंडल में हिन्दू ही नहीं बल्कि इस्लाम धर्म के पुरोहित को भी पत्र भेजा गया था सलाहकार मंडल में भागीदारी के लिए। इसलिए आरएसएस के मंच से हमेशा धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर पंथनिरपेक्षता का राग अलाप किया जाता है।

इसलिए जहां प्रथम धारा की पार्टी कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता पर जोर देता है, आरएसएस का राजनीतिक मंच पंथनिरपेक्षता शब्द का इस्तेमाल करता है, वहीं तीसरी धारा की पार्टी धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ सामाजिक न्याय का भी नारा देता है, क्योंकि धर्म से सबसे ज्यादा प्रभावित सामाजिक न्याय का ही वर्ग होता है। इसलिए आरएसएस और सिमी इस अर्थ में एक साथ नजर आता है, क्योंकि दोंनो ही वर्ग के लिए धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र और सामाजिक न्याय अमान्य है। इसलिए करीब 600-700 वर्षों के इस्लामिक शासनकाल में कभी धर्मयुद्ध नहीं हुआ।

इसलिए धर्मनिरपेक्षता की जितनी आवश्यकता सामाजिक न्याय की जनता को है, हिन्दू- मुसलमान के कुलीन वर्ग को नहीं।

काला बंदर और आतंकवाद

काला बंदर और आतंकवाद

जनता के दो भागों में बंटने के बाद चौधरी चरण सिंह और मोरारजी देसाई के बीच जब शक्ति प्रदर्शन का दौर चल रहा था और दोनों ही पार्टी कांग्रेस के इंदिरा गांधी से आंतरिक रूप से सहयोग मांग रहे थे, लेकिन खुले तौर पर दोंनो में से कोई भी सहयोग लेने से इंकार कर रहा था, क्योंकि आपातकाल की ज्यादती के कारण इंदिरा गांधी बहुत बदनाम हो चुकी थी। उसी वक्त एक पत्र ने टिप्पणी की थी कि इंदिरा गांधी उस खुबसूरत लड़की के समान है, जिससे मोहब्बत तो हर कोई करना चाहता है लेकिन शादी के लिए कोई तैयार नहीं है।

इसी संदर्भ में आज के आतंकवाद को लिया जा सकता है कि विश्व की तमाम हस्ती अपने प्रतिद्वन्द्वी को पछाड़ाने के लिए गरीब-सर्वहारा का इस्तेमाल तो करता है लेकिन सर्वहारा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है। आतंकवाद का मूर्त रूप सर्वहारा ही होता है कोई करोड़पति नहीं, भले ही कोई करोड़पति पैसे का इस्तेमाल इसमें करता हो जैसे मार्क्स के मार्क्सवाद को प्रचारित करने में फ्रेडरिक एंगेल्स ने मदद किया था, लेकिन सर्वहार की असली लड़ाई सर्वहारा ही लड़ता है क्योंकि सरजमीं पर सर्वहारा ही होता है। उसी प्रकार आतंकवाद भी अन्याय और अत्याचार का प्रतिकात्मक रूप ही है जिसकी सत्ता का की रूप नहीं होता है, आज उसके खिलाफ विश्व के तमाम शासक वर्ग एक हो गए हैं। भूतपूर्व में ओसामा बिन लादेन भी अमेरिकी सीआईए (CIA) एजेंट था और अमेरिका के द्वारा ही धन और हथियारों से मदद दिया गया था, अफगानिस्तान से सोवियत रूस की सेना को निकाल बाहर करने के लिए। ऐसी स्थिति में विश्व का सबसे बड़ा आतंक तो स्वयं अमेरिका ही है। फिर अमेरिकी आतंकवाद (26/11) को कबुल कराने के लिए आज विश्व के सारे शासक वर्ग अमेरिकी आतंक के साथ कैसे एक हो गया है और सारी दुनिया से आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर हर देश में नागरिक-अधिकार में कटौती की जा रही है। कहने का मतलब यह है कि सर्वहारा के अधिकार को कुचलने के लिए यह एकमात्र बहाना है।

आज सारी दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है और अमेरिका जो सारी दुनिया से आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर धन आवंटित कर रहा है, स्वयं मंदी के दौर से गुजर रहा है और उसी मंदी को स्वीकार कराने के लिए नागरिक-अधिकार में कटौती कर रहा है।

भारत में विकास के लिए सरकार कहती है कि पैसा नहीं लेकिन चन्दन तस्कर विरप्पन को पकड़ने के नाम पर हर साल 10 करोड़ का खर्च दिखाया जा रहा था लेकिन विरप्पन आजाद था। भारत की राजधानी दिल्ली से उत्तर प्रदेश और बिहार से मजदूरों को बाहर निकालने के लिए काला बंदर का हौव्वा खड़ा किया गया और वो काला बंदर सिर्फ गरीब मजदूर की झोपड़ी में ही आतंक फैलाता रहा, महल में नहीं। ये हमारे देश का सत्तातंत्र है जिसकी नकेल यहां की जनता के हाथ में नहीं है, पर वो नकेल होनी चाहिए।

आतंकवाद क्यों

आतंकवाद क्यों

जब कोई बड़ी शक्ति अपने अधीनस्थ जनता को जीवन जीने के अधिकार से वंचित करती है तो बहुमत में मूक जनता उस अत्याचार को अपनी नियती मान कर मौन हो जाती है, लेकिन उसी अत्याचार की प्रतिक्रिया में कुछ सीमित संख्या में आदमी जीवन जीने की लालसा में जीवनलीला को ही ध्वस्त करने पर उतारु हो जाता है जिसे तथाकथित बुद्धिजीवि शब्दजाल की रचना करते हैं और आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद, माओवाद, अलगाववाद, विद्रोही आदि का नाम देते हैं।

विश्व का शासक वर्ग जब किसी भूखंड की सीमा से बंधा नहीं है और पूंजी को उदार बनाकर पूरे विश्व में अबाधगति से प्रविष्ट करता है तो फिर श्रमशक्ति (जनता) को उदार बनाकर विश्वभ्रमण के अधिकार से वंचित कर भूखंड में आबद्ध क्यों किया जाता है।

विश्व के समस्त शाषकों की एकजूटता के कारण ही जब अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने ईराक में बमबारी किया तो विश्व की जनता द्वारा सारे विश्व में युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन किया गया, यहां तक कि स्वंय अमेरिका और ब्रिटेन में भी भारी प्रदर्शन हुआ। इसी विश्व की जनता की एकजूटता तो तोड़ने के लिए पहले उसे इस्लामिक आतंकवाद का नाम दिया गया और फिर उसे ओसामा-बिन-लादेन के उपर केन्द्रित कर दिया गया जबकि हकीकत यह है कि लादेन कोई व्यक्ति नहीं बल्कि शोषित जनता की प्रतिक्रिया है। भले ही वह इस्लाम धर्म को मानता हो और अपनी सुविधा के अनुसार इस्लामिक क्रांति की बात करता हो क्योंकि कोई भी विद्रोही अपना समर्थन जुटाने के लिए धर्म की बात करता है, समर्थक वर्ग तो आखिर गरीब जनता ही होती है।

इसलिए विश्व के तमाम इस्लामिक शासक अमेरिकी साम्राज्य के पीछे है और उस देश की गरीब जनता ओसामा बिन लादेन के समर्थन में खड़ी हो गई है। ध्यान देने की बात है कि गरीब जनता जिस किसी के साथ हो जाए, शोषक वर्ग विचलित हो जाता है। आखिर गरीबों के हक की लड़ाई का अंतिम विकल्प बचता ही क्या है ? अंतिम विकल्प है विद्रोह, जिसे आतंकवाद, उग्रवाद माओवाद, नक्सलवाद और अलगाव का नाम पूंजीवादी सामंती बुद्धिजीवि देते हैं।

आखिर विश्व शब्दकोष में अभी तक आतंकवाद को पारिभाषित क्यों नहीं किया गया है। यहां तक कि विश्व पूंजीवादी संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अभी तक इसे पारिभाषित क्यों नहीं किया है, क्योंकि पारिभाषित करने पर स्वयं शासक वर्ग उस परिभाषा के शब्दजाल में उलझ जाएगा। लेकिन ऐसा कब तक चलेगा।

झरना के गतिशील जल में किटाणु पैदा नहीं होता लेकिन जल जब स्थिर हो जाता है तो स्थिर जल में किटाणु पैदा हो जाता है, उसी प्रकार जब कोई भी व्यस्था गतिहीन अवस्था में होती है तो मंदी का दौर शुरू होता है और जब मंदी का दौर शुरू होता है तो अराजकता, आतंकवाद के रूप में उस सड़ी हुई व्यवस्था में किटाणु के रूप में उत्पन्न होता है और शासक वर्ग हर किटाणु को नष्ट करने के लिए हथियार का इस्तेमाल करता है लेकिन उस सड़ी हुई व्यवस्था को ठीक नहीं करता है जिनसे इन किटाणुओं का जन्म होता है। इसलिए जब तक व्यवस्था में गति नहीं प्रदान किया जाता है तब तक आतंकवाद के किटाणु पनपते रहेंगे आतंकवाद का नाश संभव नहीं। उस सड़ी हुई व्यवस्था को बनाए रखने के लिए शासक वर्ग गरीब जनता को हजारों वर्गों में बांटकर रखता है जिसे हम जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा, देश आदि के नाम से जानते हैं।

इसलिए जरूरी है कि उस सड़ी हुई व्यवस्था का विरोध किया जाए जिसे शासक वर्ग बनाए रखना चाहता है।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

आर्थिक उदारीकरण, श्रम का उदारीकरण और भूमंलीकरण

आर्थिक उदारीकरण, श्रम का उदारीकरण और भूमंलीकरण

आर्थिक उदारीकरण है- पूंजी के प्रवाह में किसी देश या राष्ट्र की सीमा का बाधक नहीं बनना। कहने का मतलब यह है कि पूंजी निवेश के लिए कोई देश रूकावट पैदा नहीं करे और किसी देश का खासकर अमेरिकी पूंजीपति पूंजी के प्रवाह यानि निवेश दुनिया के किसी भी देश में कर सके, इसलिए अमेरिकन पूंजीपति को देश की जमीन सेज के नाम पर दिया गया (करीब 3 लाख एकड़) जिस पर देश का संविधान भी लागू नहीं होगा। सेज पर जो उत्पादन होगा वह कर मुक्त होगा और मजदूर कानून भी लागू नहीं होगा, यही है आर्थिक उदारीकरण जिसमें किसी एक देश के पूंजीपति अब विश्व के नागरिक बनना चाहते हैं।

आर्थिक उदारीकरण तो लागू है लेकिन श्रम का उदारीकरण लागू नहीं है। श्रम के प्रवाह में राष्ट्र की सीमा बाधक है। कहने का मतलब है कि किसान और मजदूर अपने देश से बाहर जाकर काम करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं, उन्हें अपने देश से बाहर काम करने के लिए अपनी सरकार से इजाजत लेनी पड़ती है। पूंजी के साथ ऐसी बाध्यता नहीं है, वो स्वतंत्र है कहीं भी जाने के लिए। इसलिए कहा जाता है कि पूंजीपति का कोई देश नहीं होता, उसके लिए सिर्फ बाजार होता, जिसका मकसद सिर्फ मुनाफा कमाना होता है। देश सांमत और किसान मजदूर का होता है जबकि राष्ट्र खास नस्ल का होता है।

आर्थिक उदारीकरण के कारण चूंकि किसी देश की सीमा अवरोधक नहीं है, इसलिए पूरे भूमंडल के पूंजी के स्थापित साम्राज्य को भूमंडलीकरण कहा जाता है।
जब पूंजी का उदारीकरण लागू है तो श्रम का उदारीकरण क्यों नहीं ?

आतंकवादी का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

आतंकवादी का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

कोई व्यक्ति आतंकवादी क्यों बनता है। क्यों कोई अपनी जान हथेली पर लेकर किसी निश्चित उद्देश्य, किसी मंजिल को हासिल करने के लिए तैयार हो जाता है। क्यों एक सुरक्षित आदमी जिसे अपनी जिन्दगी में सब कुछ प्राप्त हो चुका है, उस सबको त्याग कर खतरों से भरा आतंकवाद का रास्ता चुनता है। अभी कुछ ही दिन पहले अलकायदा से जुड़ा एक आदमी पकड़ा गया। जांच करने पर पता चला कि वो अमेरिकी वैज्ञानिक था जो अलकायदा के लिए काम कर रहा था। आतंकवादियों के स्वाभाव के बारें में कहा जाता है कि वे या तो बोलते ही नहीं या उतना ही बोलते हैं जितना आवश्यक हो।

एक मानसिक रोगी आतंकवादी नहीं हो सकता है क्योंकि मानसिक रोगी अनुशासन में नहीं रह सकता। वह आदेशों का पालन नहीं कर सकता, इसलिए कि आतंकवादी को एक सख्त अनुशासन में रहता है। उसे उपर के आदेशों का ईमानदारी व दक्षता से पालन करना होता है। उसकी आस्था किसी न किसी आदर्श, सिद्धांत या धर्म में होती है। उसके मन में किसी वास्तविक या काल्पनिक अन्याय व शत्रु के खिलाफ आक्रोश भरा रहता है। इस आक्रोश को यह अत्यधिक बर्बर व हिंसक गतिविधियों के जरिए प्रगट करता है। इस तरह के अन्याय के प्रकार अलग-अलग देश व समाज में भिन्न हो सकते हैं जैसे असम के उल्फा के सदस्यों में इस बात के लेकर आक्रोश है कि भारत सरकार वहां के निवासियों के साथ अन्याय कर रही है। लिट्टे के सदस्यों में यह भावना थी कि श्रीलंका के बहुसंख्यक भाषा-भाषी उनके साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। नक्सलवादी या माओवादी भारत की वर्तमान सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को अन्यायपूर्ण मानता है और सोचता है कि जब तक इस समाज व्यवस्था को जड़मूल से नहीं उखाड़ फेंकेगा चैन से नहीं बैठेगा। नेपाल के माओवादी वहां के राजतंत्र को शोषण का सबसे बड़ा कारण मानते थे।

जो मुस्लिम युवक अंतराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न है। उनकी सोच है कि पश्चिम के राष्ट्रों ने मुसलमानों के साथ अन्याय किया है। फिलस्तीन को लेकर सारी दुनिया के मुसलमान पश्चिमी राष्ट्रों खासकर अमेरिका से खफा है, इसलिए तो अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में तो कभी इंगलैंड के ग्लासगो हवाई अड्डे पर आतंकवादी हमला होते हैं।

आतंकवाद खत्म हो सकते है अगर विश्व के जितने भी इस्लामिक देश है वहां से अमेरिकी सरकार अपनी सेना को वापस बुला लें, लेकिन अमेरिका सेना वापस क्यों बुलाएगा। वहां तो सत्ता पूंजीपतियों के हाथ में है, जिसका मकसद सिर्फ मुनाफा कमाना है। आतंकवादी अपनी बर्बरता किससे दिखाते हैं- हथियार से और हथियार बनाता कौन है और सप्लाई कौन करता है। सबसे अधिक हथियार तो खुद अमेरिका बनाता है, इसलिए सबसे बड़ा तो आतंकवादी तो स्वंय अमेरिका है, जो आतंकवाद के पनपने में मदद करता है। गौर से सोचिए आज अफगानिस्तान में एक लाख से अधिक अमेरिकी सेना और साथ में नाटो सेना भी है। क्या अफगानिस्तान की स्थिति इतनी बदतर है कि यदि अमेरिका सेना वहां नहीं हो तो अफगानिस्तान पूरे विश्व के लिए खतरा पैदा हो जाएगा जिसे ठीक करने का ठेका अमेरिका अपने उपर ले रखा है। एक अफगानिस्तान ही क्यों दुनिया के 123 देश में अमेरिकी सेना मौजूद है, तो ऐसे में आतंक क्यों नहीं और आतंकवादी क्यों नहीं ?
आतंकवादी का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

पत्रकारिता

पत्रकारिता

माई फर्स्ट बार्न, सच्चे पत्रकार को डांटा जा सकता है, फटकारा जा सकता है, धकियाया जा सकता है, नोचा जा सकता है, खसोटा जा सकता है, पीटा जा सकता है, लेकिन बेइज्जत नहीं किया जा सकता है। जो न्यूज हाउन्ड बेइज्जती महसूस करता है, वो इस धन्धे के काबिल नहीं। वो पत्रकारिता के लायक नहीं। उसे आराम तलब नौकरी की तलाश करनी चाहिए।
वीर बालक, बालिके सच्चा पत्रकार वो है पत्रकारिता जिसका जुनून है जिसकी इबादत है जिसका इश्क है और ये इश्क नहीं आंसा बस इतना समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

                    क्या है – आग का दरिया
                    कैसे जाना है – डूब के जाना है

जानेबहार, गुले गुलजार पत्रकारिता की आन बान और शान, वीरों के वीर बब्रूबाहन तेरे लिए सितारों से आगे जहां और भी है, अभी इश्क के इम्तहां और भी है।
माई फर्स्ट बार्न, सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है और पत्रकारिता मेरी कलम और जुबान में है। इसलिए मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे कि दाना खाक में मिलकर गुलेगुलजार होता है।

पत्रकारिता के कलम और जुबान का सिपाही किसी एक मुठभेड़ में हार जाने से युद्ध नहीं हार जाता है, यानि पत्रकारिता मर नहीं जाती। मेरे लाल गिरते हैं- शाहसवार ही मैदाने जंग में वो टिफ्ल क्या करेगा जो घुटनों के बल चले। इसलिए घुटनों के बल पत्रकारिता चलने से बेहतर है विरोध की पत्रकारिता हो।
पत्रकारिता के पत्रकारों का जोशोजुनून इन बातों से पस्त नहीं किया जा सकता है कि कहीं से उसे पीटकर भगाया जाए। पत्रकारिता का एक मुकद्दर यह भी है, इसलिए इससे डरना नहीं चाहिए क्योंकि डरती नहीं पत्रकारिता.............

संवेदनहीन निम्न वर्ण और मीडिया

संवेदनहीन निम्न वर्ण और मीडिया

मिरगी के रोगी को जब दौरा आता है तो वह अपना हाथ आग में डाल देता है और उसे कोई एहसास नहीं होता जबकि आग अपने धर्म के मुताबिक हाथ को जला देता है और फफोले हो जाते हैं और फिर दौरा खत्म होने के बाद दु:ख झेलने के लिए अभिशप्त होता है और कराहता है लेकिन कोई फायदा नहीं होता है।

लेकिन संवेदनशील नेतृत्व (वामपंथ) और हिंदी पट्टी में अपने ही कुशल नेतृत्व में संवेदनशील होकर आवाज उठाती है तो कहीं नक्सलवादी, माओवादी, उग्रवादी,और जातिवादी कहकर कुलीन शासक वर्ग उस पुलिस और सेना के सहयोग से कुचलने का प्रयास करता है। लेकिन विचारों को सांमतवादी और पूंजीवादी हथियार खत्म नहीं कर सकते हैं इसलिए निम्म कौम को संवेदनहीन बनाए रखने के लिए पूरे हिंदी पट्टी में धर्म का घूंट पिलाया जाता है और मीडिया जगत में रोटी के बदले धर्म का प्रचार किया जाता है, तभी तो झारखंड, छत्तीसगढ, राजस्थान, पंजाब और मध्यप्रदेश आदि प्रांतों में आरएसएस के राजनीतिक मंच यथास्थितिवादी के पक्ष में वोट डालती है। यही नहीं निम्न कौम दलित-आदिवासियों को वोट से वंचित करने के लिए चुनाव आयोग और नौकरशाह के द्वारा मतदाता सूची से नाम गायब किया जाता है और यदि मतदाता सूची में नाम दर्ज है तो फिर फोटो खिंचवाने के बाद पहचान पत्र ही नहीं दिया जाता है और बिना पहचान पत्र के उसे मतदान से भी वंचित किया जाता है। एक उदाहरण है बेगूसराय विधानसभा क्षेत्र के जगदीशपुर गांव बूथ नम्बर पर 1332 मतदाता है जबकि मात्र 48 मतदाताओं को ही पहचान पत्र दिया है और अन्य सभी मतदाता जब मतदान बूथ पर पहुंचे तो उन्हें मतदान देने से रोक दिया गया। फिर इन निम्न वर्ग के मतदाताओं ने मतदान का बहिष्कार कर दिया। ये बहुसंख्यक मतदाता वामपंथ से प्रभावित थे। यही जनता जब संवेदनशील होकर अत्याचार के खिलाफ विद्रोह के लिए आवाज उठाती है और जीने का हक मांगती है तो उसे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारा जाता है और सैन्य प्रयोग करने की बात की जाती है।

कुलीन वर्ग और कुलीन वर्ग का मीडिया (विशेषकर अंग्रेजी मीडिया)  जिसके हाथ में सत्ता की चाभी है। हिन्दुस्तान को पाकिस्तान बनाने की ओर अग्रसर नहीं करे, यदि 90 प्रतिशत नस्ल को सैन्यबल से खत्म कर दिया गया तो फिर वह राज किस पर करेगा। गृहयुद्ध दोनों ही वर्ग का शुद्धिकरण कर देगा।

नक्सलवाद 1967 से शुरू हुआ था और तत्काल वामपंथी ताकत सीपीएम को कमजोर करने के लिए दिल्ली के शासन से सहयोग भी मिला था, लेकिन विचार कभी मरता नहीं है चाहे सीपीआई हो या सीपीएम हो या आज का माओवादी सभी एक ही विचार का प्रतिनिधित्व करता है कि 90 प्रतिशत जनता को जीने का हक प्राप्त हो। आज वामपंथ को कमजोर करने के लिए कुलीन वर्ग नक्सलवाद को हवा देता है और फिर उसी नक्सलवाद के नाम पर एक विराट नस्ल दलित-आदिवासी को अमेरिका के रेड इंडियन की तरह मिटाना चाहता है, लेकिन भारत रेड इंडियन का देश नहीं है, यहां सामाजिक न्याय और वामपंथ दोनों का वजूद है। माओवाद सैनिक कार्यवाई और पैसे के प्रलोभन से खत्म नहीं हो सकता। इसे प्रगतिशील विचार और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध शक्ति ही खत्म कर सकती है। पूंजीवादी विचार समतावादी माओवादी उग्रविचार का सामना नहीं कर सकता।

भारत में 1962 के भारत-चीन युद्ध में वायुसेना का प्रयोग नहीं किया गया था। सीमा पार आतंकवादी अड्डे को खत्म करने के लिए वायुसेना का प्रयोग नहीं होता, लेकिन अपने देश के भूखे नागरिकों के शिविर छत्तीसगढ, झारखंड के नक्सली अड्डे को नष्ट करने के लिए सैन्य प्रयोग (ग्रीनहंट) की बात की जाती है। कई इलाकों में यह प्रयोग शुरू भी हो चुकी है, मीडिया के कैमरे का रूख उस तरफ जरूर होना चाहिए।

1950-52 के दौर में नागा उग्रवादी के खिलाफ सैन्य कार्यवाई की गयी जिसमें भारत सरकार की जगहंसाई हुई थी। देश के संसद पर हमला करने वालों, राजधानी मुंबई पर हमला करने वाले को अभी तक फांसी नहीं हुई, लेकिन 1972 में आंध्र प्रदेश के दो नक्सली नेताओं को फांसी की सजा हुई। एक छोटे अपराध के नाम पर जेल और फांसी की सजा होती है जिसमें दो-चार की हत्या हुई हो या लाख दो लाख रूपये की लूट हुई हो उसे फांसी की सजा होती है वहीं दूसरी ओर करोड़ों-अरबों रूपये लूटकर विदेशी बैंक में काले धन के रूप में जमा करने वाले आर्थिक अपराधी मौज-मेले में अपना जीवन गुजर बसर कर रहें हैं, यह नहीं हो सकता है और हो सके तो आगे आने दिनों में इसके खिलाफ आवाज उठे।

राजधानी में 19 नवंबर 2009 को उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान उपज के दाम बढाने की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर डटे तो अंग्रेजी अखबारों ने अपनी खबर के इंट्रो से लेकर आखिरी पैरा तक उनको दंगाई और उत्पाती बना डाला। दूसरे अंग्रेजी अखबार ने लिखा कि 12 हजार की तादाद में किसान राजधानी में उतरे। पूरे तीन घंटो तक दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस में उत्पात मचाया- सार्वजनिक संपत्तियों को तहस-नहस किया, दुकानों को लूटा और महिलाओं के साथ छेड़खानी की। अंग्रेजी अखबारों ने इसके साक्ष्य तलाशे बकायदा तस्वीरों से साबित किया कि देखिए यह प्रदर्शनकारियों की भीड़ नहीं बेवड़ों की जमात है जो नशे के झोंक में पार्कों में शराब डालती है।

ये हमारे देश की मीडिया है जिसे अपना हक मांगती गन्ना किसान दंगाई नजर आती है। समय को इस पर सोचने की जरूरत है।

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

धर्म और संप्रदाय

धर्म और संप्रदाय

हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथ मनुस्मृति में मानव के दस गुणों का उल्लेख है अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दया क्षमा, सुश्रुषा, शील, मधुर वचन, शरणागत की रक्षा करना एवं अतिथि सेवा जिसे साधारण धर्म कहा जाता है, ये मानवीय गुण प्राय: हर धर्म में पाया जाता है।

लेकिन उपरोक्त ढंग से पालन करने में कोई आदमी पहचान में नहीं आ सकता कि जूता में पॉलिस करने वाला हिन्दू धर्म का ही अनुयायी है। माता-पिता की सेवा करना और राजधर्म और कुलधर्म का पालन करने से भी पहचान नहीं बनती है, इसलिए धर्म के अनुयायी को पहचान बनाने के लिए पुरोहित ने प्रतीक का निर्माण किया किया जैसे माथे पर शिखा (टीक) रखना, जनेउ पहनना, खास मूर्ति की पूजा करना, मंदिर जाना, ये सभी हिन्दू धर्म का पालन करने वालों की पहचान है। दूसरी ओर मुसलमान की पहचान है- नवाज पढना, मस्जिद जाना। इसाई की पहचान है- क्रॉस धारण करना, गिरजाघरों में जाना। सिख की पहचान है- पगड़ी धारण करना, कटार रखना।
धर्म का मूर्त रूप संप्रदाय है और उपरोक्त सभी पहचान बनाना ही संप्रदायिकता है।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

सत्ता, सरकार और पार्टी

सत्ता, सरकार और पार्टी

सत्ता का आजतक मानक परिभाषा नहीं है, व्याख्या के रूप में कहा जाता है कि वह अमूर्त शक्ति जिसके द्वारा शासक वर्ग राज्य पर शासन करता है, उसे सत्ता कहते हैं। उर्जा एक अमूर्त शक्ति है जैसे सूर्य में उर्जा है लेकिन सूर्य स्वंय में उर्जा नहीं है उसी प्रकार सत्ता का रूप भिन्न-भिन्न होता है। किसी देश की सेना में सत्ता निहित होती है, किसी देश की न्यायपालिका में सत्ता होती है तो कहीं मीडिया में होती है जैसे पाकिस्तान में सत्ता सेना में निहित है और भारत में अंग्रेजी प्रेस में सत्ता निहित है।

सरकार एक समूहवाचक संज्ञा है, नौकरशाही के सीढीनुमा ढांचे को सरकार कहते हैं, इसे कार्यपालिका भी कहा जाता है जैसे सेना एक समूवाचक संज्ञा है। इसमें सेनापति, मेजर, कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल और सैनिक होते हैं लेकिन समूचे ढांचे को सेना कहा जाता है। सेनापति, मेजर, कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल और कोई भी सैनिक स्वंय में सेना नहीं है लेकिन सब मिलाकर सेना कहलाता है। कोई भी मुख्य सचिव, कलेक्टर स्वंय में सरकार नहीं है, बल्कि सरकार के अंग हैं। 

पार्टी लोकतांत्रिक ढांचा में सरकार के कार्य की जानकारी एवं सलाह देने के जनता के प्रतिनिधि की आवश्यकता होती है। यद्दपि सरकार के कार्य गुप्त होतें हैं, इसलिए नौकरशाह को सलाह देना भी गुप्त होता है। इसलिए अंग्रेजों ने गोपनियता का कानून बनाया। गोपनियता को भंग करना भयानक अपराध की श्रेणी में आता है इसलिए मंत्री का अर्थ होता है- गुप्त मंत्रणा करने वाला।

अत: जनप्रतिनिधि सिर्फ सलाह देता है, यह आवश्यक नहीं है कि हर सलाह को मान लिया जाए। जिस सलाह को मान लिया जाता है उसे ही मंत्री के द्वारा जनता के समक्ष लाया जाता है क्योंकि नौकरशाह के द्वारा मीडिया में बयान नहीं दिया जाता है, इस कारण जन  आक्रोश नौकरशाह के प्रति नहीं बल्कि मंत्री के प्रति होता है। इसलिए सलाह देने के लिए दलीय समूह का निर्माण होता है कि कौन सा समूह जनता का विश्वास प्राप्त करता है। इसलिए दलीय समूह चुनाव के वक्त लुभावने मुद्दे रखते हैं, जनता का विश्वास प्राप्त करने के लिए जो शायद ही कभी मूर्त रूप ले पाता है। इसलिए नौकरशाह स्वंय गुप्त रूप से अपनी इच्छानुसार सलाह रखने के लिए अघोषित रूप से दलीय सलाहकार मंडली में हिस्सा लेते हैं और पूंजीवादी मीडिया के साथ मिलकर प्रचारतंत्र के रूप में कार्य करते है,  किसी समूह को जिताने के लिए पूरी ताकत का इस्तेमाल करते हैं।
         
           यही सत्ता का गुण भी है।                         

उत्पादन में श्रम और व्यवस्था का स्थान

उत्पादन में श्रम और व्यवस्था का स्थान

अर्थशास्त्र में उत्पादन के चार साधन माने गए हैं भूमि, पूंजी, व्यवस्था और श्रम। किसी भी वस्तु के उत्पादन में इन चारों का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण होता है लेकिन कहीं कहीं पांचवा स्थान साहस को भी दिया जाता है।

 इन चारों में भूमि प्रकृति प्रदत्त है। भूमि का उत्पादन ही होता है पूंजी धन के रूप में निष्क्रिय है और जब धन को सक्रिय किया जाता है तो वह धन पूंजी कहलाता है। तीसरा स्थान व्यवस्था का है निष्क्रिय धन को सक्रिय करने के लिए व्यवस्थापक की आवश्यकता होती है। व्यवस्थापक उत्पादन के लिए राज्य से बैंक क़र्ज़ के रूप में मामूली चार प्रतिशत पर ब्याज प्राप्त करता है और शेष रकम शेयर के रूप में जनता से सीधे प्राप्त करता है। इन तीनो साधन के रहते हुए बिना श्रम के निष्क्रिय रहता है इसलिए मार्क्स की नज़र में श्रम का स्थान सर्वोपरि है। फिर भी उत्पादन में व्यवस्थापक के द्वारा श्रम का उचित पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है और श्रमिक का भयंकर शोषण होता है। इसलिए श्रमिक और व्यवस्थापक के बीच संघर्ष होता है। इसी संघर्ष को आधार बनाकर मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया उदाहरण स्वरुप मशीन का आविष्कार होने से कपड़ा का उत्पादन मूल्य (श्रमिक का वेतन)  कम होता है, लेकिन जो कपड़ा आदमी बाज़ार में सौ रूपये में खरीदता है उस पर  लागत खर्च (श्रमिक का वेतन, धन का ब्याज और मुनाफा सहित) पंद्रह बीस रूपये ही पड़ता  है। इस तरह  अस्सी से पचासी प्रतिशत शुद्ध श्रमिक का शोषण हुआ यहीं से वर्ग संघर्ष मिल मालिक (व्यवस्थापक) और श्रमिक के बीच वर्ग संघर्ष होता है। 

आतंकवाद

आतंकवाद

आतंकवाद को अभी तक परिभाषित नहीं किया गया है। संयुक्त राष्ट्र  संघ में जब इसे परिभाषित करने की बात आई तो अमेरिका ने इसे मानने से इनकार कर दिया क्योंकि अमेरिका स्वतन्त्रता आन्दोलन को भी आतंकवाद करार देता है और अन्य देश स्वतन्त्रता आन्दोलन को आतंकवाद की श्रेणी में रखने के लिए तैयार नहीं हैं, फिर भी सामान्य तौर पर राज्य के विरूद्ध  जब गुरिल्ला युद्ध किया जाता है तो राज्य के द्वारा उसे आतंकवाद घोषित किया जाता है क्योंकि राज्य शक्तिशाली होता है।

आज के समय में या कहें कि वर्तमान समय में कोई भी समूह राज्य के खिलाफ आमने- सामने की लड़ाई नहीं जीत सकता है। इसलिए जनता का एक छोटा सा हिस्सा गुरिल्ला युद्ध ही करता है और आतंक पैदा करता है। इसलिए उसे आतंकवादी करार दिया जाता है जैसे अपने समय सन 1627 में शिवाजी भी गुरिल्ला युद्ध के द्वारा ही औरंगजेब को परास्त कर अपना राज्य स्थापित कर पाए  थे। अपने समय में अंग्रेज़ी सत्ता की नज़र में सारे देशभक्त आतंकवादी और देशद्रोही करार दिए  गए थे। लोकमान्यतिलक भी देशद्रोह के आरोप में जेल भेज दिए गए थे। देशभक्त भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव ,चंद्रशेखर, खुदीराम बोस को आतंकवादी ही करार दिया गया था। यहाँ तक की गाँधी ने मिदनापुर (बंगाल) की आमसभा में भगत सिंह को गुंडा ही कहा था तब देशबंधु चितरंजन दास ने उसी मंच से इसका प्रतिवाद किया था।