मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

उत्पादन में श्रम और व्यवस्था का स्थान

उत्पादन में श्रम और व्यवस्था का स्थान

अर्थशास्त्र में उत्पादन के चार साधन माने गए हैं भूमि, पूंजी, व्यवस्था और श्रम। किसी भी वस्तु के उत्पादन में इन चारों का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण होता है लेकिन कहीं कहीं पांचवा स्थान साहस को भी दिया जाता है।

 इन चारों में भूमि प्रकृति प्रदत्त है। भूमि का उत्पादन ही होता है पूंजी धन के रूप में निष्क्रिय है और जब धन को सक्रिय किया जाता है तो वह धन पूंजी कहलाता है। तीसरा स्थान व्यवस्था का है निष्क्रिय धन को सक्रिय करने के लिए व्यवस्थापक की आवश्यकता होती है। व्यवस्थापक उत्पादन के लिए राज्य से बैंक क़र्ज़ के रूप में मामूली चार प्रतिशत पर ब्याज प्राप्त करता है और शेष रकम शेयर के रूप में जनता से सीधे प्राप्त करता है। इन तीनो साधन के रहते हुए बिना श्रम के निष्क्रिय रहता है इसलिए मार्क्स की नज़र में श्रम का स्थान सर्वोपरि है। फिर भी उत्पादन में व्यवस्थापक के द्वारा श्रम का उचित पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है और श्रमिक का भयंकर शोषण होता है। इसलिए श्रमिक और व्यवस्थापक के बीच संघर्ष होता है। इसी संघर्ष को आधार बनाकर मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का नाम दिया उदाहरण स्वरुप मशीन का आविष्कार होने से कपड़ा का उत्पादन मूल्य (श्रमिक का वेतन)  कम होता है, लेकिन जो कपड़ा आदमी बाज़ार में सौ रूपये में खरीदता है उस पर  लागत खर्च (श्रमिक का वेतन, धन का ब्याज और मुनाफा सहित) पंद्रह बीस रूपये ही पड़ता  है। इस तरह  अस्सी से पचासी प्रतिशत शुद्ध श्रमिक का शोषण हुआ यहीं से वर्ग संघर्ष मिल मालिक (व्यवस्थापक) और श्रमिक के बीच वर्ग संघर्ष होता है। 

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