सोमवार, 25 जनवरी 2010

धन, पूंजी, पूंजीपति और पूंजीवाद

धन, पूंजी, पूंजीपति और पूंजीवाद

धन - कोई भी भौतिक साधन जो मानवीय आवश्यकता को पूरा करता है धन कहलाता है। प्राचीन समय में मानवीय आवश्यकता को पूरा करने का माध्यम वाटर व्यवस्था थी जिसमें एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु प्राप्त किया जाता था। जैसे अनाज के बदले तेल, दूध के बदले अनाज आदि। बाद में मुद्रा का चलन हुआ तो मुद्रा ही विनिमय का साधन बन गया और मुद्रा में ही खरीद-बिक्री शुरू हुआ। इसलिए आमतौर पर मुद्रा को ही धन कहा जाने लगा।

पूंजी - धन का उपयोग जब उत्पादन कार्य में लगाया जाता है तो वह धन पूंजी कहलाती है कहने का मतलब है धन से जब धन को उत्पादन के माध्यम से पैदा किया जाए। जैसे किसी आदमी के पास बैंक में करोड़ो रूपये जमा है तो वह (जमा) धन कहलाता है, पूंजी नहीं। लेकिन जब उसी धन को कारखाने खोलकर उत्पादन में लगाया जाता है तो वह पूंजी कहलाता है। यानी पूंजी धन के रूप में स्वंय निष्क्रिय होता है और जब धन को सक्रिय किया जाता है तो वह धन पूंजी कहलाता है।

पूंजीपति - कोई भी व्यकित जो अपने धन को व्यवसाय में लगाता है यानी कोई कारखाना खोलता है और धन से धन का उत्पादन करता है तो वह पूंजीपति कहलाता है। इसलिए धनिक और पूंजीपति में अंतर होता है। किसी आदमी के पास लाखों, करोड़ों की संपत्ति है तो वह आदमी धनिक तो हो सकता है लेकिन पूंजीपति नहीं हो सकता है।

पूंजीवाद - पूंजी का धर्म है मुनाफा और जब मुनाफा को ही प्राथमिकता प्रदान किया जाता है और समाज कल्याण के बदले व्यक्तिवादी मुनाफा का समर्थन किया जाता है तो उसे पूंजीवाद कहते हैं।

जिस तरह धन का सक्रिय रूप पूंजी है उसी प्रकार पूंजीपति का सक्रिय रूप पूंजीवाद है लेकिन पूंजी का सक्रिय रूप पूंजीपति हो यह कोई जरूरी नहीं। जिस तरह सांप का धर्म है काटना वो काटेगा ही इस वजह से हम सांप को खत्म तो नहीं कर सकते हैं। उसी तरह पूंजी का धर्म है फैलना वो फैलेगा ही हम उसे फैलने से नहीं रोक सकते। क्योंकि किसी भी व्यवस्था को चलाने के लिए अर्थ की जरूरत होती है चूंकि अर्थव्यवस्था गतिशील होती है और उसे गति प्रदान करने का काम पूंजी ही करती है धन नहीं। इसलिए व्यवस्था चाहे वह समाजवादी हो या पूंजीवादी दोनों के लिए अर्थ की जरूरत होती है। इसलिए समस्या पूंजी नहीं पूंजीपति का है जो पूंजीवाद को जन्म देता है, रोकने का प्रश्न तो पूंजीपिति को है।

व्यवस्था अगर पूंजीवादी है तो पूंजी का सक्रिय रूप पूंजीपति होगा, लेकिन व्यवस्था अगर समाजवादी हो तो पूंजी का दूसरा रूप लोक कल्याणकारी होगा और एक अच्छी व्यवस्था तब मानी जाएगी जब सरकार के हाथ में पूंजी का केन्द्रन न हो यानी सरकार के हाथ से निकलकर पूंजी दूसरे ( आम जनता ) के हाथ की भी क्रय शक्ति बने। ये क्रय शक्ति उनके हाथ से न छीने, यही इस व्यवस्था की सबसे बड़ी ताकत है यानी समाजवादी पूंजी की व्यवस्था।

सवाल पूंजीपति का है जो पूंजीवाद को जन्म देता है। क्या पूंजीपति उदार हो सकते है इस सवाल का जबाव बिल गेट्स ने देने की कोशिश की है। बिल गेट्स आज की तारीख में संसार के सबसे अमीर व्यवक्तियों में से एक है। 2008 में स्विटजरलैंड के दावोस शहर में जो आर्थिक सम्मेलन हुआ था, उसमें गेट्स का भाषण सबसे ज्यादा प्रभावशाली रहा। इसमें उन्होने बताया कि पूंजीवाद के सिद्धांत में थोड़ा परिवर्तन अगर कर दिया जाए तो पूंजीवादी व्यवस्था अच्छी है। और अपने इस सिद्धांत का नाम दिया- उदारवादी पूंजीवाद। सवाल है कि क्या पूंजीवाद कभी उदारवादी हो सकता है और अगर उदारवादी हो गया तो वो पूंजीवाद कैसा ?
आगे........

बिल गेट्स संसार के पूंजीपतियों से आग्रह करते हैं कि वे यानी पूंजीपति गरीब लोगों के हाथ से उनकी क्रय शक्ति को न छीने। अगर क्रय शक्ति को छीनने का प्रयास किया गया तो इसका बुरा परिणाम संसार के अमीरों को भुगतना होगा। क्योंकि मरता क्या न करता। अत: संसार के हर उद्योगपतियों और हर व्यपारी का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह धन कमाने की चाह में इन अभागे और गरीब लोगों की अपेक्षा न करे। संसार में स्वस्थ्य सेवा में जो उन्नति हुई उसका लाभ गरीब लोगों को भी मिलना चाहिए। उसी तरह शिक्षा का लाभ भी इन गरीब लोगों को मिलना चाहिए। पूंजीपतियों को ऐसे सामान बनाने चाहिए जो आसनी से गरीब लोगों की पहूंच के अंदर हो जिसे वे खरीद सके।

अपना उदाहरण पेश करते हुए बिल गेट्स ने अपनी एक वसीयत बनायी जिसमें उन्होने लिखा है कि उनकी और उनकी पत्नी के देहांत के 50 वर्ष बाद उनकी सारी संपत्ती संसार के गरीब और अभावग्रस्त लोगों में बांट दी जाए। ये इंक्लाबी बदलाव बिल गेट्स में तब आया जब उन्होंने भारत और अफ्रीकी महादेश के विभिन्न देशों का दौरा किया।

पूंजीवादी व्यवस्था में बिल गेट्स जैसे पूंजीपति को उदारवादी शब्द का इस्तेमाल करना पड़ा क्यों ?

क्यों अब पूंजीपति को उदारवादी होने की जरूरत महसूस हो रही है

सवाल है कि पूंजीवाद अगर उदार हुआ तो पूंजीपति का क्या होगा और बिना पूंजीपति के पूंजीवाद कैसे संभव है।

बुधवार, 6 जनवरी 2010

वर्ग संघर्ष बनाम वर्ण संघर्ष

वर्ग संघर्ष बनाम वर्ण संघर्ष

मानव सभ्यता के विकास क्रम में विश्व में तीन वर्ग का उदय हुआ। पहला पुरोहित वर्ग दूसरा वर्ग शासक वर्ग और तीसरा किसान वर्ग, लेकिन बहुत से देश में चौथे वर्ग का भी उदय हुआ, जिसे गुलाम से पैदा हुआ वर्ग माना जा सकता है। शासक वर्ग वे थे जिन की राज्य की संपूर्ण भूमि पर अधिकार प्राप्त थे। आम जनता जो किसान वर्ग से आते थे उनसे शासक वर्ग भूमि पर खेती करवाते थे और उपज का खास हिस्सा प्राप्त करते थे। वे सामंत कहलाते थे। बाद में वे सामंतवर्ग कहलाने लगे। राज्य की सारी शक्ति इनमें ही निहित होती थी।

दूसरा वर्ग पुरोहित का था जो शासक वर्ग से दायभाग के नाम पर मंदिर एवं पुरोहित का खर्च चलाने के लिए राज्य से प्रप्त करते थे और किसान एवं गुलाम से खेती करवाते थे और मौज करते थे, या दूसरे शब्दों में पुरोहित वर्ग शासक वर्ग से मंदिर निर्माण हेतु प्राप्त जमीन पर गुलामों और किसानों से खेती करवाते थे और मंदिर के नाम पर सामंत और किसान वर्ग से दान पर बिना श्रम के मौज करते थे।

तीसरा वर्ग किसान का था। जो भूमिहीन था और सामंत और पुरोहित की जमीन पर खेती करता था और उपज का खास हिस्सा सामंत और पुरोहित को दिया करता था। इसी वर्ग से शिल्पकारी भी करवाया जाता था और मजदूरी भी। यानी सामंत और वर्ग ऐसे थे जो श्रम नहीं करते थे, लेकिन किसान के शोषण पर आराम तलब जिन्दगी जीते थे। संपूर्ण प्राकृतिक साधन पर उनका ही आधिपत्य था।

एक कड़वा सच यह भी है कि पहले दो वर्गों को बीच ही यानी कि शासक और पुरोहित के बीच ही अधिकार की लड़ाई चलती थी। यह लड़ाई सत्ता पर वर्चस्व की होती थी। जिसे धर्मसत्ता बनाम राजसत्ता की लड़ाई भी कहा जा सकता है। पहले धर्मसत्ता, राजसत्ता पर हावी था, लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद कालान्तर में राजसत्ता और धर्मसत्ता के बीच टकराहट हुआ। टकराहट की परिणति सामंतवाद, पूंजीवाद के रूप में बदल गया और पूंजीवाद में सामंतवाद सुसुप्ता अवस्था में चला गया। धर्मसत्ता राजसत्ता से परास्त हो गया। पूरे यूरोप में धर्मसत्ता कमजोर पड़ गई और पूंजीवाद हावी हो गया।

इसलिए आधुनिक युग में सिर्फ दो वर्ग रह गया। एक वर्ग जो बिना श्रम के परजीवी के रूप में समाज के सारे प्राकृतिक और भौतिक साधनों का उपभोग करता है और दूसरा वर्ग जो श्रम आश्रित हो गया, उसकी हालत दिन-ब-दिन खराब होते चला गया। जब-जब आम श्रमिक जनता की हालत खराब होती है तब-तब विचारों का एक महामानव समाज से बनता है। प्रचीन काल में गौतम बुद्ध के विचार महामानव के रूप में हुआ था तो आधुनिक काल में कार्ल मार्क्स के विचारों का उदय हुआ। कार्ल मार्क्स ने समाज के वर्ग चरित्र की वैज्ञानिक व्याख्या कर इसे वर्ग संघर्ष का नाम दिया। जिसे उन्होंने उत्पादक श्रमिक वर्ग और अनुत्पादक पूजीपति वर्ग का नाम दिया।

लेकिन भारत में अवस्था भिन्न है क्योंकि भारत यूरोप नहीं है जहां एक ओर यूरोप में पूंजीवाद के गर्भ से श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ वहीं भारत में श्रमिक वर्ग मां के गर्भ से पैदा होता है। भारत में शासक वर्ग ने समाज को चार भाग में बांटा। पहला वर्ग ब्राह्मण दूसरा क्षत्रिय तीसरा वैश्य और चौथा शूद्र। कालान्तर में बौद्ध काल के बाद सिर्फ दो वर्ग का नाम दिया गया। एक ब्राह्मण और दूसरा शूद्र। भारत में क्षत्रिय और ब्राह्मण के योग से सवर्ण शब्द का निर्माण हुआ। वहीं वैश्य और शूद्र से निर्मित वर्ग को शासन की सुविधा के लिए 6000 जाति का निर्माण सीढीनुमा ढांचे में किया गया। इसलिए हिन्दुस्तान में युरोप का वर्ग नहीं है और जब वर्ग ही नहीं तो वर्ग संघर्ष का सवाल ही पैदा नहीं होता बल्कि हिन्दुस्तान में वर्ग की जगह वर्ण संघर्ष हो रहा है। जिसे मार्क्स ने भी भूल स्वीकार करते हुए कहा कि भारत में वर्ण संघर्ष ही संभव है और उसके बाद ही वर्ग संघर्ष हो सकता है। इसे इमीएस नम्बूदरीपाद ने भी स्वीकार किया, जिनके नेतृत्व में केरल में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी थी। बी. टी. रणदीवे ने भी स्वीकार किया, क्योंकि भारत में सत्ता और संपत्ति पर सवर्ण वर्ग का ही कब्जा है।

भारत में श्रम विभाजन नहीं श्रमिक विभाजन लागू है। भारत में जन्म के aसाथ ही उसके लिए श्रम नियत है। यहां हर काम पहले से तय है- चमार का पुत्र जूता ही बनाएगा बढई का बेटा बढई का ही काम करेग, यद्यपि यह श्रम विभाजन वर्तमान समय में सख्ती से लागू नहीं है। इसलिए आरएसएस इसे सख्ती से लागू करने की लड़ाई लड़ रहा है। क्योंकि इस देश के इतिहास में हमेशा वर्ण संघर्ष रहा है। यूरोप का इतिहास वर्ग संघर्ष का रहा है, वहीं भारत का इतिहास वर्ण संघर्ष का रहा है।

यूरोप में वर्ग को धर्म से नहीं जोड़ा गया जबकि भारत में वर्ण को धर्म से जोड़ा गया है। इसलिए भारत में हिन्दूधर्म को वर्णाश्रम धर्म कहा गया है और धर्म की आत्मा भी।

मरना होगा काले भारतीयों कों

मरना होगा काले भारतीयों को

भौतिक विज्ञान में स्थूल से सूक्ष्म अधिक शक्तिशाली होता है और समाज विज्ञान में शारीरिक अपराध से अधिक खतरनाक होता है मानसिक अपराध। इस मानसिक अपराध के चलते रोटी के अभाव में दम तोड़ती जनता नि:सहाय हो जाती है। 100 ग्राम के पत्थर से संभव है कि यदि किसी के सर पर मार दे तो हो सकता है कि व्यक्ति का सर फट जाए और रक्त स्त्राव हो जाए, लेकिन मौत नहीं होगी। जबकि 100 ग्राम का यूरेनियम हिमालय जैसे पहाड़ को भी धूल में मिलाने के लिए काफी है। इसी आधार पर होमियोपैथ का सिद्धांत कार्य करता है जो रोग शरीर के काट-छांट से दूर नहीं होती है वह होमियोपैथ की मीठी गोली से दूर हो जाती है। उसी प्रकार एक व्यक्ति जो शारीरिक अपराधी है उससे एक दो नहीं 100-50 आदमी घायल हो सकता है या मौत सकती है लेकिन तंत्र के अधीन रखने वाला ऐसा मानसिक अपराधी जिसकी विद्वत्ता पर शासक-वर्ग को नाज होता है, द्वारा करोड़ों लोगों को भूख से तड़पने के लिए मजबूर किया जाता है। उनमें से लाखों आदमी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है। लेकिन समाज के इन तथाकथित बुद्धजीवी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती और ये बुद्धजीवी ऐसे समय में जब लाखों आदमी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे होते हैं तो उन्हें धर्म नैतिकता और समाज-विज्ञान का पाठ पढाते हैं और आदमी को अत्याचार को सहन करने के लिए प्रेरित करते हैं। इन बुद्धजीवियों को जानना चाहिए कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में बुखार को रोग नहीं माना गया है बल्कि बुखार तो रोग से लड़ने की शरीर की प्रतिक्रिया मात्र है।

प्रेमचंद ने वर्षों पूर्व अपने अप्रकाशित पुस्तक में कहा था कि किसी भी देश का या कौम का सबसे बड़ा दुश्मन उस कौम का शिक्षित वर्ग होता है। इसलिए किसी भी देश का बुद्धिजीवी समुदाय शारीरिक अपराधी से अधिक खतरनाक होता है, क्योंकि देश का बुद्धिजीवी समुदाय जनता की मौलिक समस्या से हटकर सोचने के लिए प्रेरित करता है। बेरोजगार युवकों को क्रिकेट के खेल में उलझाए रखता है तो दूसरी ओर किसान मजदूर को धर्म का घूंट पिलाकर निस्तेज होकर पड़े रहने के लिए प्रेरित करता है। रोटी की बात आती है तो रोटी की चिन्ता से दूर हटा देता है।

 आज हर अखबार के पन्ने पर राजनीति में अपराध पर बड़े-बड़े लेख निकाले जाते हैं। समाचार पत्रों में अपराध और आतंकवाद पर सबसे अधिक समाचार पढने को मिलता है। अखबार के माध्यम से ही देश का बुद्धिजीवी हर अपराध और आतंकवाद को पहले पन्ने पर लिखता है और खत्म हो रहे लोकतंत्र और गरीब जनता के प्रति हो रहे अन्याय के लिए अपनी लेखनी से आंसू बहाता है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि जिसे वह लोकतंत्र परिभाषित करते हैं वस्तुत: वह लोकतंत्र नहीं तंत्रलोक है और इसी तंत्र के खिलाफ लोक की प्रतिक्रिया को अपराधी करार दिया जाता है।

 देश आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, यानी देश में एक तरह से अघोषित आपातकाल लागू है। इस अघोषित आपातकाल से लोगों के अंदर एक तरह से उबाल नजर आ रहा है जिसका परिणाम अपराध की लगातार बढती हुई घटनाएं हैं, नक्सलवाद है माओवाद है। विगत वर्ष 2008 में नक्सल हिंसा की कुल 1591 घटना हुई थी, जिसमें 721 लोग मारे गए थे, इस वर्ष 2009 के नवंबर के अंत तक 1405 घटनाएं हो चुकी जिसमें 580 व्यक्ति मारे गए हैं। वहीं पिछले दो साल में पूरे देश में बिहार और उत्तर प्रदेश को छोड़कर लगभग दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और कर रहे हैं। बावजूद इसके आज देश की सबसे बड़ी समस्या के रूप में नक्सलवाद को प्रचारित किया जा रहा है। जिनके पास अगले दिन का भोजन नहीं है और न कोई काम, उनकी चिंता किसे है ? सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी ) कुल आठ से दस प्रतिशत हो जाए इससे उनका क्या फायदा जो भूखे हैं। उनके लिए कैसा जीडीपी और कैसा विकास ? सवाल है कि विकास का जो सिद्धांत है, विकास वहीं होगा जहां भूखमरी होगी, लेकिन जहां भूखमरी है वहां विकास का दूर दूर तक नामोनिशान नही है। विकास किसके लिए होता है लोंगो के लिए ही न, और जब लोग ही नहीं है तो महाशक्तिमान किसके लिए। भारत में भूखी जनता का प्रतिशत बढ़ रहा है, शिक्षा और स्वास्थ्य से पहले की चिंता भूख मिटाने की है, क्योंकि पेट की भूख सबसे बड़ी भूख है। इसके समक्ष सबकुछ अर्थहीन है। बौद्धिक समुदाय में भी इन भूखों के लिए अधिक चिंता नहीं है। बड़ा प्रश्न यह है कि भूख से तड़प रहे जो लोग हैं उनकी चिंता कौन करेगा और न केवल चिंतित होने से क्या समस्या दूर हो जाएगा जब तक इसके लिए कुछ किया न जाए।

 देश की लक्ष्मी पर भी कुछ लोंगो का ही कब्जा है। एक तरफ भारत के उद्योगपति विश्व में अपनी पहचान बना रहे हैं। फोर्ब्स पत्रिका जो उद्योगपतियों की सूची जारी करती है उसमें टॉप टेन में तीन-तीन भारतीय उद्योगपति अपना नाम दर्ज करा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ कुपोषण के मामले में, आत्महत्या करने के मामले में भारत अपनी पहचाना बना रहा है। जो भद्रजन है साधन-संपन्न सुखी जीवन जीने वाले हैं उनके लिए भूख से दम तोड़ती जिन्दगी कोई विषय ही नहीं हैं। जो उसकी मार झेल रहे हैं वो मौन है चुप हैं नंगी आंखे तलाशती है रोटी। दो जून का भरपेट भोजन करोड़ों भारतीय को नसीब नहीं है।

आज खाने के लिए लोगों के पास भले ही पैसा नहीं हो लेकिन सोचने के लिए समय तो है और इसी सोच का नतीजा होगा कि लोगों की तरफ से बदलाव के लिए एक आवाज उठेगी और वो आवाज बिहार से उठेगी। बेशक आज हिंदी पट्टी बाहर से जड़ नजर आती है, लेकिन यहां एक बड़ा बदलाव करवट ले रहा है जो पूरे देश का नेतृत्व करेगा।

 आज देश में पानी के निजीकरण की बात चल रही है। विश्व बैंक के अधिकारियों के अनुसार बैंक चाहता है कि 2010 तक दिल्ली में पानी का पूरा निजीकरण हो जाए। इसके करीब दस साल बाद यानि 2020 तक पूरे भारत में पानी के निजीकरण को अंजाम देने की योजना है। यानी स्थिति और भयानक होने जा रही है जनता के लिए। जिन्दा रहने के लिए पानी एक आवश्यक तत्व है( water is necessary in our life.) जीवित वही रहेंगे जो पानी पियेंगे और पानी वही पियेंगे जिनके पास पानी को खरीदकर पीने लायक पैसा होगा। सवाल है कि पैसे नही रहने पर क्या होगा, पानी को तरसेंगे लोग और मरेंगे लोग कितने मरेंगे पता नहीं। कौन मरेंगे यही काले भारतीय।

 इतना होने के बावजूद वित्तमंत्री का ध्यान देश के आर्थिक विकास यानी सकल घरेलू उत्पाद के बढने पर है। आज वित्तमंत्री इस बात से खुश हो सकते हैं कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है।

एक तरफ मुल्क में वैज्ञानिक तकनीकी संस्थानों का जाल बिछ रहा है जिसमें लाखों युवा विज्ञान और तकनीक की उम्दा पढ़ाई करेंगे। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने देश में कैंपस स्थापित करवाने के लिए विदेशों का दौरा कर रहे हैं। दूसरी तरफ करोड़ों आम जनता है जिसे तकनीक से कोई मतलब नहीं है।

                        अंधे को क्या चाहिए दो आंखे
                        भूखी जनता को भी क्या चाहिए रोटी
                        लेकिन वो भी हम कहां दे पा रहे हैं।

ऐसी स्थिति में अराजकता तो होगी ही। पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने एक दार्शनिक की दृष्टि से धर्म तुलनात्मक दृष्टि में लिखा है कि- अराजकता और विद्रोह किसी भी समाज की प्रगति के लिए पहली शर्त है और इसके बगैर प्रगति नहीं हो सकती है।

 यदि सुनहरे भविष्य को प्राप्त करना है तो देश को प्रसव पीड़ा से गुजरना ही होगा इसके अलावे और कोई चारा नहीं है इसलिए जो शक्ति विराजमान है वह यथास्थिति बनाए रखने के लिए व्याकुल है। जाहिर है कि कोई भी शासक वर्ग भौतिक विज्ञान के जड़ता के सिद्धांत से अभिभूत होता है और वह यथास्थिति बनाए रखना चाहता है जिससे कि उसकी स्थिति में परिवर्तन न हो और यदि यथास्थिति बहाल रहती है तो काले भारतीयों को आत्महत्या करनी ही होगी।

सोमवार, 4 जनवरी 2010

विभिन्न धर्मों का सार तत्त्व

विभिन्न धर्मों का सार तत्त्व

चमत्कार और करिश्मा – ईसाइ के लिए

किस्मत और धर्मांधता - मुसलमानों के लिए

रहस्यवादी और कबीरपंथी – सिख धर्म के लिए

जाति और कर्मकांड - हिन्दुओं के लिए

काया क्लेश और नंगा – जैनों के लिए

रहस्यवाद और तंत्र-मंत्र – ताओ धर्म के लिए

औपचारिकता और बाह्य पवित्रता – कन्फ्यूसियस के लिए

पितृ-पूजा और मिकाडो के प्रति वफादारी – शिन्तो धर्म

प्रेम और पवित्रता – बौद्धों के लिए

शक्ति ही सच है

शक्ति ही सच है

कैनो उपनिषद में लिखा है कि जो ज्ञात है वह ब्रह्म नहीं है और जो ब्रह्म है वह ज्ञात नहीं है। इसी बात को शंकराचार्य ने कहा है दूसरे रूप में – जो दृश्य जगत है वह झूठ है और जो अदृश्य है वह सच है यानी संसार जो दिखाई पड़ता है वह मिथ्या है और ब्रह्म जो सच है दिखाई नहीं पड़ता है। भौतिक विज्ञान में जिसे हम शक्ति के नाम से जानते हैं दिखाई नहीं पड़ती है और जो वस्तु दिखाई पड़ती है उसे हम शक्ति नहीं कह सकते हैं।

यही बात इतिहास पर भी लागू होती है। सर्वप्रथम यह जानना जरूरी है कि इतिहास है क्या ? एक इतिहास पुरूष ने इसे परिभाषित करते हुए कहा कि घटनाओं के समीक्षात्मक विश्लेषण का नाम इतिहास है यानी किसी घटित घटना को जिस रूप में विश्लेषण किया जाएगा वही इतिहास कहलाएगा और विश्लेषण की स्वीकृति हमेशा शक्ति के द्वारा ही होगी। कहने का मतलब यह कि जो वर्ग शक्तिशाली है उसके द्वारा किया गया विश्लेषण ही सच होगा। यही कारण है कि जब भारत का इतिहास लिखा गया तो आजादी के 50 साल बाद तक हम सच उसे मानते रहे और जब देश में संघ परिवार शक्ति में आया तो फिर अपना इतिहास लिखा और घटनाओं का विश्लेषण अपने ढंग से किया और जनता से कहा गया कि भारत की जनता के लिए यही सच है। जब संघ परिवार की शक्ति क्षीण होगी तो जिस वर्ग का शासन होगा, उस वर्ग का अपना इतिहास होगा जिसे सच माना जाएगा। यानी इतिहास कोई यथार्थ घटना नहीं बल्कि घटना का विश्लेषण मात्र है या कहा जा सकता है विजेता वर्ग का विश्लेषण मात्र है।

इसलिए कार्ल मार्क्स ने इतिहास को वर्ग संघर्ष की कहानी स्वीकार किया है, इसलिए मजदूर के लिए वर्ग संघर्ष के द्वारा शक्ति प्राप्त करना ही एकमात्र उद्देश्य है। जो शक्तिहीन है उसका कोई इतिहास भी नहीं होता है यानी शोषितों का कोई इतिहास नहीं होता, इतिहास तो सिर्फ शासकों का होता है। इसलिए इतिहास को अमूर्त शक्ति बाह्य विश्लेषण ही कहा जा सकता है। इतिहास हमेशा वर्तमान की राजनीतिक जरूरत को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। कई बार वह शासक या बड़ी शक्ति के द्वारा किसी के माध्यम से लिखवाया भी जाता है। एक महान इतिहासकार अपनी जिन्दगी में एक लाइन भी नहीं लिख पाया क्योंकि वह सही इतिहास लिखना चाहता था। एक लेखक की टिप्पणी थी कि मानव जाति अपना सही इतिहास कभी लिख ही नहीं सकता। हंस के संपादक ने कहा कि दरअसल इतिहास एक गढंत है, यह सिर्फ व्यवस्थाओं का खेल है जिसे सत्ता तय करती है।


कार्ल मार्क्स के शब्दों में मानव इतिहास दो वर्गों के बीच का संघर्ष मात्र है, इसलिए शोषितों का एकमात्र उद्देश्य वर्ग संघर्ष के जरिए शक्ति प्राप्त करना ही होना चाहिए न कि शासक वर्ग द्वारा परिभाषित आदर्श वाक्य। आदर्श हमेशा यथास्थितिवादी का एकमात्र हथियार होता है जिसका प्रयोग बलहीन(शक्तहीन) को यथास्थिति में रखने के लिए किया जाता है, इसलिए संघर्ष एकमात्र उपाय है, क्योंकि संघर्ष ही विकास है यानी कि विकास के लिए जरूरी है कि संघर्ष होने चाहिए। मानव सभ्यता अगर आजाद है तो आजादी का मतलब विकास होना चाहिए।

आज दुनिया की पूरी मिथालॉजी शक्ति के प्रतीक देवी-देवताओं के तानों बानों से ही बुनी हुई है। आज भी शक्ति का महत्व निर्विवाद है। अमेरिका की दादागिरी पूरी दुनिया में चल रही है तो इसलिए कि उसके पास सबसे अधिक सामरिक शक्ति और सम्पदा है। जिसके पास एटम बम नहीं है उसकी बात कोई नहीं सुनता, उसकी आवाज का कोई मूल्य नहीं है। गीता उसी की सुनी जाती है, जिसके हाथ में चक्र सुदर्शन हो। उसी की धौंस का भी कोई मतलब होता है और उसी की विनम्रता का भी। उन्नत सभ्यताओं में शक्ति पूजा की चीज नहीं होती। जो जीत जाता है वह पूज्य बन जाता है और जो हारता है वह पूजक। एक सभ्य समाज में नायकों की पूजा होती है, शक्तिमानों की नहीं। शक्तिमानों की पूजा कमजोर, काहिल और पराजित समाज करता है, क्योंकि वहां भी यानी कमजोर समाज में भी शक्ति की ही प्रधनता होती है, क्योंकि शक्ति ही सच है।

शब्द का अपना कोई अर्थ नहीं होता बल्कि अर्थ शब्द पर आरोपित होते हैं,इसलिए हर शब्द का अर्थ भी हर सौ साल में बदल जाते हैं और शब्द का अर्थ भी शक्ति यानी सत्ता पर निर्भर करता है, इसलिए अर्थ करने का अधिकार भी सिर्फ शक्तिशाली को ही रहता है और शक्तिहीन उस अर्थ को स्वीकार करते हैं। उसी प्रकार न्याय के बारे में भी सुकरात का कथन है कि – अन्यायी के हक में जो कुछ है वही न्याय है जाहिर है कि शब्द का अपना कोई अर्थ नहीं होता बल्कि अर्थ ही शब्द पर आरोपित होता है।

कवि दिनकर ने लिखा है- क्षमा शोभती उस भूजंग को जिसके पास गरल हो। उसे क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो। इसलिए शक्तिशाली से ही यह अपेक्षा की जाती है कि वह न्याय की भागीदारी में सहायक बने। कमजोर से न्याय की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। कहने का मतलब है -

शक्ति ही सच है
बाकी सब झूठ है।