मरना होगा काले भारतीयों को
भौतिक विज्ञान में स्थूल से सूक्ष्म अधिक शक्तिशाली होता है और समाज विज्ञान में शारीरिक अपराध से अधिक खतरनाक होता है मानसिक अपराध। इस मानसिक अपराध के चलते रोटी के अभाव में दम तोड़ती जनता नि:सहाय हो जाती है। 100 ग्राम के पत्थर से संभव है कि यदि किसी के सर पर मार दे तो हो सकता है कि व्यक्ति का सर फट जाए और रक्त स्त्राव हो जाए, लेकिन मौत नहीं होगी। जबकि 100 ग्राम का यूरेनियम हिमालय जैसे पहाड़ को भी धूल में मिलाने के लिए काफी है। इसी आधार पर होमियोपैथ का सिद्धांत कार्य करता है जो रोग शरीर के काट-छांट से दूर नहीं होती है वह होमियोपैथ की मीठी गोली से दूर हो जाती है। उसी प्रकार एक व्यक्ति जो शारीरिक अपराधी है उससे एक दो नहीं 100-50 आदमी घायल हो सकता है या मौत सकती है लेकिन तंत्र के अधीन रखने वाला ऐसा मानसिक अपराधी जिसकी विद्वत्ता पर शासक-वर्ग को नाज होता है, द्वारा करोड़ों लोगों को भूख से तड़पने के लिए मजबूर किया जाता है। उनमें से लाखों आदमी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है। लेकिन समाज के इन तथाकथित बुद्धजीवी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती और ये बुद्धजीवी ऐसे समय में जब लाखों आदमी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे होते हैं तो उन्हें धर्म नैतिकता और समाज-विज्ञान का पाठ पढाते हैं और आदमी को अत्याचार को सहन करने के लिए प्रेरित करते हैं। इन बुद्धजीवियों को जानना चाहिए कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में बुखार को रोग नहीं माना गया है बल्कि बुखार तो रोग से लड़ने की शरीर की प्रतिक्रिया मात्र है।
प्रेमचंद ने वर्षों पूर्व अपने अप्रकाशित पुस्तक में कहा था कि किसी भी देश का या कौम का सबसे बड़ा दुश्मन उस कौम का शिक्षित वर्ग होता है। इसलिए किसी भी देश का बुद्धिजीवी समुदाय शारीरिक अपराधी से अधिक खतरनाक होता है, क्योंकि देश का बुद्धिजीवी समुदाय जनता की मौलिक समस्या से हटकर सोचने के लिए प्रेरित करता है। बेरोजगार युवकों को क्रिकेट के खेल में उलझाए रखता है तो दूसरी ओर किसान मजदूर को धर्म का घूंट पिलाकर निस्तेज होकर पड़े रहने के लिए प्रेरित करता है। रोटी की बात आती है तो रोटी की चिन्ता से दूर हटा देता है।
आज हर अखबार के पन्ने पर राजनीति में अपराध पर बड़े-बड़े लेख निकाले जाते हैं। समाचार पत्रों में अपराध और आतंकवाद पर सबसे अधिक समाचार पढने को मिलता है। अखबार के माध्यम से ही देश का बुद्धिजीवी हर अपराध और आतंकवाद को पहले पन्ने पर लिखता है और खत्म हो रहे लोकतंत्र और गरीब जनता के प्रति हो रहे अन्याय के लिए अपनी लेखनी से आंसू बहाता है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि जिसे वह लोकतंत्र परिभाषित करते हैं वस्तुत: वह लोकतंत्र नहीं तंत्रलोक है और इसी तंत्र के खिलाफ लोक की प्रतिक्रिया को अपराधी करार दिया जाता है।
देश आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, यानी देश में एक तरह से अघोषित आपातकाल लागू है। इस अघोषित आपातकाल से लोगों के अंदर एक तरह से उबाल नजर आ रहा है जिसका परिणाम अपराध की लगातार बढती हुई घटनाएं हैं, नक्सलवाद है माओवाद है। विगत वर्ष 2008 में नक्सल हिंसा की कुल 1591 घटना हुई थी, जिसमें 721 लोग मारे गए थे, इस वर्ष 2009 के नवंबर के अंत तक 1405 घटनाएं हो चुकी जिसमें 580 व्यक्ति मारे गए हैं। वहीं पिछले दो साल में पूरे देश में बिहार और उत्तर प्रदेश को छोड़कर लगभग दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और कर रहे हैं। बावजूद इसके आज देश की सबसे बड़ी समस्या के रूप में नक्सलवाद को प्रचारित किया जा रहा है। जिनके पास अगले दिन का भोजन नहीं है और न कोई काम, उनकी चिंता किसे है ? सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी ) कुल आठ से दस प्रतिशत हो जाए इससे उनका क्या फायदा जो भूखे हैं। उनके लिए कैसा जीडीपी और कैसा विकास ? सवाल है कि विकास का जो सिद्धांत है, विकास वहीं होगा जहां भूखमरी होगी, लेकिन जहां भूखमरी है वहां विकास का दूर दूर तक नामोनिशान नही है। विकास किसके लिए होता है लोंगो के लिए ही न, और जब लोग ही नहीं है तो महाशक्तिमान किसके लिए। भारत में भूखी जनता का प्रतिशत बढ़ रहा है, शिक्षा और स्वास्थ्य से पहले की चिंता भूख मिटाने की है, क्योंकि पेट की भूख सबसे बड़ी भूख है। इसके समक्ष सबकुछ अर्थहीन है। बौद्धिक समुदाय में भी इन भूखों के लिए अधिक चिंता नहीं है। बड़ा प्रश्न यह है कि भूख से तड़प रहे जो लोग हैं उनकी चिंता कौन करेगा और न केवल चिंतित होने से क्या समस्या दूर हो जाएगा जब तक इसके लिए कुछ किया न जाए।
देश की लक्ष्मी पर भी कुछ लोंगो का ही कब्जा है। एक तरफ भारत के उद्योगपति विश्व में अपनी पहचान बना रहे हैं। फोर्ब्स पत्रिका जो उद्योगपतियों की सूची जारी करती है उसमें टॉप टेन में तीन-तीन भारतीय उद्योगपति अपना नाम दर्ज करा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ कुपोषण के मामले में, आत्महत्या करने के मामले में भारत अपनी पहचाना बना रहा है। जो भद्रजन है साधन-संपन्न सुखी जीवन जीने वाले हैं उनके लिए भूख से दम तोड़ती जिन्दगी कोई विषय ही नहीं हैं। जो उसकी मार झेल रहे हैं वो मौन है चुप हैं नंगी आंखे तलाशती है रोटी। दो जून का भरपेट भोजन करोड़ों भारतीय को नसीब नहीं है।
आज खाने के लिए लोगों के पास भले ही पैसा नहीं हो लेकिन सोचने के लिए समय तो है और इसी सोच का नतीजा होगा कि लोगों की तरफ से बदलाव के लिए एक आवाज उठेगी और वो आवाज बिहार से उठेगी। बेशक आज हिंदी पट्टी बाहर से जड़ नजर आती है, लेकिन यहां एक बड़ा बदलाव करवट ले रहा है जो पूरे देश का नेतृत्व करेगा।
आज देश में पानी के निजीकरण की बात चल रही है। विश्व बैंक के अधिकारियों के अनुसार बैंक चाहता है कि 2010 तक दिल्ली में पानी का पूरा निजीकरण हो जाए। इसके करीब दस साल बाद यानि 2020 तक पूरे भारत में पानी के निजीकरण को अंजाम देने की योजना है। यानी स्थिति और भयानक होने जा रही है जनता के लिए। जिन्दा रहने के लिए पानी एक आवश्यक तत्व है( water is necessary in our life.) जीवित वही रहेंगे जो पानी पियेंगे और पानी वही पियेंगे जिनके पास पानी को खरीदकर पीने लायक पैसा होगा। सवाल है कि पैसे नही रहने पर क्या होगा, पानी को तरसेंगे लोग और मरेंगे लोग कितने मरेंगे पता नहीं। कौन मरेंगे यही काले भारतीय।
इतना होने के बावजूद वित्तमंत्री का ध्यान देश के आर्थिक विकास यानी सकल घरेलू उत्पाद के बढने पर है। आज वित्तमंत्री इस बात से खुश हो सकते हैं कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है।
एक तरफ मुल्क में वैज्ञानिक तकनीकी संस्थानों का जाल बिछ रहा है जिसमें लाखों युवा विज्ञान और तकनीक की उम्दा पढ़ाई करेंगे। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने देश में कैंपस स्थापित करवाने के लिए विदेशों का दौरा कर रहे हैं। दूसरी तरफ करोड़ों आम जनता है जिसे तकनीक से कोई मतलब नहीं है।
अंधे को क्या चाहिए दो आंखे
भूखी जनता को भी क्या चाहिए रोटी
लेकिन वो भी हम कहां दे पा रहे हैं।
ऐसी स्थिति में अराजकता तो होगी ही। पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने एक दार्शनिक की दृष्टि से धर्म तुलनात्मक दृष्टि में लिखा है कि- अराजकता और विद्रोह किसी भी समाज की प्रगति के लिए पहली शर्त है और इसके बगैर प्रगति नहीं हो सकती है।
यदि सुनहरे भविष्य को प्राप्त करना है तो देश को प्रसव पीड़ा से गुजरना ही होगा इसके अलावे और कोई चारा नहीं है इसलिए जो शक्ति विराजमान है वह यथास्थिति बनाए रखने के लिए व्याकुल है। जाहिर है कि कोई भी शासक वर्ग भौतिक विज्ञान के जड़ता के सिद्धांत से अभिभूत होता है और वह यथास्थिति बनाए रखना चाहता है जिससे कि उसकी स्थिति में परिवर्तन न हो और यदि यथास्थिति बहाल रहती है तो काले भारतीयों को आत्महत्या करनी ही होगी।
भौतिक विज्ञान में स्थूल से सूक्ष्म अधिक शक्तिशाली होता है और समाज विज्ञान में शारीरिक अपराध से अधिक खतरनाक होता है मानसिक अपराध। इस मानसिक अपराध के चलते रोटी के अभाव में दम तोड़ती जनता नि:सहाय हो जाती है। 100 ग्राम के पत्थर से संभव है कि यदि किसी के सर पर मार दे तो हो सकता है कि व्यक्ति का सर फट जाए और रक्त स्त्राव हो जाए, लेकिन मौत नहीं होगी। जबकि 100 ग्राम का यूरेनियम हिमालय जैसे पहाड़ को भी धूल में मिलाने के लिए काफी है। इसी आधार पर होमियोपैथ का सिद्धांत कार्य करता है जो रोग शरीर के काट-छांट से दूर नहीं होती है वह होमियोपैथ की मीठी गोली से दूर हो जाती है। उसी प्रकार एक व्यक्ति जो शारीरिक अपराधी है उससे एक दो नहीं 100-50 आदमी घायल हो सकता है या मौत सकती है लेकिन तंत्र के अधीन रखने वाला ऐसा मानसिक अपराधी जिसकी विद्वत्ता पर शासक-वर्ग को नाज होता है, द्वारा करोड़ों लोगों को भूख से तड़पने के लिए मजबूर किया जाता है। उनमें से लाखों आदमी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है। लेकिन समाज के इन तथाकथित बुद्धजीवी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती और ये बुद्धजीवी ऐसे समय में जब लाखों आदमी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे होते हैं तो उन्हें धर्म नैतिकता और समाज-विज्ञान का पाठ पढाते हैं और आदमी को अत्याचार को सहन करने के लिए प्रेरित करते हैं। इन बुद्धजीवियों को जानना चाहिए कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में बुखार को रोग नहीं माना गया है बल्कि बुखार तो रोग से लड़ने की शरीर की प्रतिक्रिया मात्र है।
प्रेमचंद ने वर्षों पूर्व अपने अप्रकाशित पुस्तक में कहा था कि किसी भी देश का या कौम का सबसे बड़ा दुश्मन उस कौम का शिक्षित वर्ग होता है। इसलिए किसी भी देश का बुद्धिजीवी समुदाय शारीरिक अपराधी से अधिक खतरनाक होता है, क्योंकि देश का बुद्धिजीवी समुदाय जनता की मौलिक समस्या से हटकर सोचने के लिए प्रेरित करता है। बेरोजगार युवकों को क्रिकेट के खेल में उलझाए रखता है तो दूसरी ओर किसान मजदूर को धर्म का घूंट पिलाकर निस्तेज होकर पड़े रहने के लिए प्रेरित करता है। रोटी की बात आती है तो रोटी की चिन्ता से दूर हटा देता है।
आज हर अखबार के पन्ने पर राजनीति में अपराध पर बड़े-बड़े लेख निकाले जाते हैं। समाचार पत्रों में अपराध और आतंकवाद पर सबसे अधिक समाचार पढने को मिलता है। अखबार के माध्यम से ही देश का बुद्धिजीवी हर अपराध और आतंकवाद को पहले पन्ने पर लिखता है और खत्म हो रहे लोकतंत्र और गरीब जनता के प्रति हो रहे अन्याय के लिए अपनी लेखनी से आंसू बहाता है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि जिसे वह लोकतंत्र परिभाषित करते हैं वस्तुत: वह लोकतंत्र नहीं तंत्रलोक है और इसी तंत्र के खिलाफ लोक की प्रतिक्रिया को अपराधी करार दिया जाता है।
देश आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, यानी देश में एक तरह से अघोषित आपातकाल लागू है। इस अघोषित आपातकाल से लोगों के अंदर एक तरह से उबाल नजर आ रहा है जिसका परिणाम अपराध की लगातार बढती हुई घटनाएं हैं, नक्सलवाद है माओवाद है। विगत वर्ष 2008 में नक्सल हिंसा की कुल 1591 घटना हुई थी, जिसमें 721 लोग मारे गए थे, इस वर्ष 2009 के नवंबर के अंत तक 1405 घटनाएं हो चुकी जिसमें 580 व्यक्ति मारे गए हैं। वहीं पिछले दो साल में पूरे देश में बिहार और उत्तर प्रदेश को छोड़कर लगभग दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और कर रहे हैं। बावजूद इसके आज देश की सबसे बड़ी समस्या के रूप में नक्सलवाद को प्रचारित किया जा रहा है। जिनके पास अगले दिन का भोजन नहीं है और न कोई काम, उनकी चिंता किसे है ? सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी ) कुल आठ से दस प्रतिशत हो जाए इससे उनका क्या फायदा जो भूखे हैं। उनके लिए कैसा जीडीपी और कैसा विकास ? सवाल है कि विकास का जो सिद्धांत है, विकास वहीं होगा जहां भूखमरी होगी, लेकिन जहां भूखमरी है वहां विकास का दूर दूर तक नामोनिशान नही है। विकास किसके लिए होता है लोंगो के लिए ही न, और जब लोग ही नहीं है तो महाशक्तिमान किसके लिए। भारत में भूखी जनता का प्रतिशत बढ़ रहा है, शिक्षा और स्वास्थ्य से पहले की चिंता भूख मिटाने की है, क्योंकि पेट की भूख सबसे बड़ी भूख है। इसके समक्ष सबकुछ अर्थहीन है। बौद्धिक समुदाय में भी इन भूखों के लिए अधिक चिंता नहीं है। बड़ा प्रश्न यह है कि भूख से तड़प रहे जो लोग हैं उनकी चिंता कौन करेगा और न केवल चिंतित होने से क्या समस्या दूर हो जाएगा जब तक इसके लिए कुछ किया न जाए।
देश की लक्ष्मी पर भी कुछ लोंगो का ही कब्जा है। एक तरफ भारत के उद्योगपति विश्व में अपनी पहचान बना रहे हैं। फोर्ब्स पत्रिका जो उद्योगपतियों की सूची जारी करती है उसमें टॉप टेन में तीन-तीन भारतीय उद्योगपति अपना नाम दर्ज करा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ कुपोषण के मामले में, आत्महत्या करने के मामले में भारत अपनी पहचाना बना रहा है। जो भद्रजन है साधन-संपन्न सुखी जीवन जीने वाले हैं उनके लिए भूख से दम तोड़ती जिन्दगी कोई विषय ही नहीं हैं। जो उसकी मार झेल रहे हैं वो मौन है चुप हैं नंगी आंखे तलाशती है रोटी। दो जून का भरपेट भोजन करोड़ों भारतीय को नसीब नहीं है।
आज खाने के लिए लोगों के पास भले ही पैसा नहीं हो लेकिन सोचने के लिए समय तो है और इसी सोच का नतीजा होगा कि लोगों की तरफ से बदलाव के लिए एक आवाज उठेगी और वो आवाज बिहार से उठेगी। बेशक आज हिंदी पट्टी बाहर से जड़ नजर आती है, लेकिन यहां एक बड़ा बदलाव करवट ले रहा है जो पूरे देश का नेतृत्व करेगा।
आज देश में पानी के निजीकरण की बात चल रही है। विश्व बैंक के अधिकारियों के अनुसार बैंक चाहता है कि 2010 तक दिल्ली में पानी का पूरा निजीकरण हो जाए। इसके करीब दस साल बाद यानि 2020 तक पूरे भारत में पानी के निजीकरण को अंजाम देने की योजना है। यानी स्थिति और भयानक होने जा रही है जनता के लिए। जिन्दा रहने के लिए पानी एक आवश्यक तत्व है( water is necessary in our life.) जीवित वही रहेंगे जो पानी पियेंगे और पानी वही पियेंगे जिनके पास पानी को खरीदकर पीने लायक पैसा होगा। सवाल है कि पैसे नही रहने पर क्या होगा, पानी को तरसेंगे लोग और मरेंगे लोग कितने मरेंगे पता नहीं। कौन मरेंगे यही काले भारतीय।
इतना होने के बावजूद वित्तमंत्री का ध्यान देश के आर्थिक विकास यानी सकल घरेलू उत्पाद के बढने पर है। आज वित्तमंत्री इस बात से खुश हो सकते हैं कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है।
एक तरफ मुल्क में वैज्ञानिक तकनीकी संस्थानों का जाल बिछ रहा है जिसमें लाखों युवा विज्ञान और तकनीक की उम्दा पढ़ाई करेंगे। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल विदेशी विश्वविद्यालयों को अपने देश में कैंपस स्थापित करवाने के लिए विदेशों का दौरा कर रहे हैं। दूसरी तरफ करोड़ों आम जनता है जिसे तकनीक से कोई मतलब नहीं है।
अंधे को क्या चाहिए दो आंखे
भूखी जनता को भी क्या चाहिए रोटी
लेकिन वो भी हम कहां दे पा रहे हैं।
ऐसी स्थिति में अराजकता तो होगी ही। पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने एक दार्शनिक की दृष्टि से धर्म तुलनात्मक दृष्टि में लिखा है कि- अराजकता और विद्रोह किसी भी समाज की प्रगति के लिए पहली शर्त है और इसके बगैर प्रगति नहीं हो सकती है।
यदि सुनहरे भविष्य को प्राप्त करना है तो देश को प्रसव पीड़ा से गुजरना ही होगा इसके अलावे और कोई चारा नहीं है इसलिए जो शक्ति विराजमान है वह यथास्थिति बनाए रखने के लिए व्याकुल है। जाहिर है कि कोई भी शासक वर्ग भौतिक विज्ञान के जड़ता के सिद्धांत से अभिभूत होता है और वह यथास्थिति बनाए रखना चाहता है जिससे कि उसकी स्थिति में परिवर्तन न हो और यदि यथास्थिति बहाल रहती है तो काले भारतीयों को आत्महत्या करनी ही होगी।
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