सोमवार, 25 जनवरी 2010

धन, पूंजी, पूंजीपति और पूंजीवाद

धन, पूंजी, पूंजीपति और पूंजीवाद

धन - कोई भी भौतिक साधन जो मानवीय आवश्यकता को पूरा करता है धन कहलाता है। प्राचीन समय में मानवीय आवश्यकता को पूरा करने का माध्यम वाटर व्यवस्था थी जिसमें एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु प्राप्त किया जाता था। जैसे अनाज के बदले तेल, दूध के बदले अनाज आदि। बाद में मुद्रा का चलन हुआ तो मुद्रा ही विनिमय का साधन बन गया और मुद्रा में ही खरीद-बिक्री शुरू हुआ। इसलिए आमतौर पर मुद्रा को ही धन कहा जाने लगा।

पूंजी - धन का उपयोग जब उत्पादन कार्य में लगाया जाता है तो वह धन पूंजी कहलाती है कहने का मतलब है धन से जब धन को उत्पादन के माध्यम से पैदा किया जाए। जैसे किसी आदमी के पास बैंक में करोड़ो रूपये जमा है तो वह (जमा) धन कहलाता है, पूंजी नहीं। लेकिन जब उसी धन को कारखाने खोलकर उत्पादन में लगाया जाता है तो वह पूंजी कहलाता है। यानी पूंजी धन के रूप में स्वंय निष्क्रिय होता है और जब धन को सक्रिय किया जाता है तो वह धन पूंजी कहलाता है।

पूंजीपति - कोई भी व्यकित जो अपने धन को व्यवसाय में लगाता है यानी कोई कारखाना खोलता है और धन से धन का उत्पादन करता है तो वह पूंजीपति कहलाता है। इसलिए धनिक और पूंजीपति में अंतर होता है। किसी आदमी के पास लाखों, करोड़ों की संपत्ति है तो वह आदमी धनिक तो हो सकता है लेकिन पूंजीपति नहीं हो सकता है।

पूंजीवाद - पूंजी का धर्म है मुनाफा और जब मुनाफा को ही प्राथमिकता प्रदान किया जाता है और समाज कल्याण के बदले व्यक्तिवादी मुनाफा का समर्थन किया जाता है तो उसे पूंजीवाद कहते हैं।

जिस तरह धन का सक्रिय रूप पूंजी है उसी प्रकार पूंजीपति का सक्रिय रूप पूंजीवाद है लेकिन पूंजी का सक्रिय रूप पूंजीपति हो यह कोई जरूरी नहीं। जिस तरह सांप का धर्म है काटना वो काटेगा ही इस वजह से हम सांप को खत्म तो नहीं कर सकते हैं। उसी तरह पूंजी का धर्म है फैलना वो फैलेगा ही हम उसे फैलने से नहीं रोक सकते। क्योंकि किसी भी व्यवस्था को चलाने के लिए अर्थ की जरूरत होती है चूंकि अर्थव्यवस्था गतिशील होती है और उसे गति प्रदान करने का काम पूंजी ही करती है धन नहीं। इसलिए व्यवस्था चाहे वह समाजवादी हो या पूंजीवादी दोनों के लिए अर्थ की जरूरत होती है। इसलिए समस्या पूंजी नहीं पूंजीपति का है जो पूंजीवाद को जन्म देता है, रोकने का प्रश्न तो पूंजीपिति को है।

व्यवस्था अगर पूंजीवादी है तो पूंजी का सक्रिय रूप पूंजीपति होगा, लेकिन व्यवस्था अगर समाजवादी हो तो पूंजी का दूसरा रूप लोक कल्याणकारी होगा और एक अच्छी व्यवस्था तब मानी जाएगी जब सरकार के हाथ में पूंजी का केन्द्रन न हो यानी सरकार के हाथ से निकलकर पूंजी दूसरे ( आम जनता ) के हाथ की भी क्रय शक्ति बने। ये क्रय शक्ति उनके हाथ से न छीने, यही इस व्यवस्था की सबसे बड़ी ताकत है यानी समाजवादी पूंजी की व्यवस्था।

सवाल पूंजीपति का है जो पूंजीवाद को जन्म देता है। क्या पूंजीपति उदार हो सकते है इस सवाल का जबाव बिल गेट्स ने देने की कोशिश की है। बिल गेट्स आज की तारीख में संसार के सबसे अमीर व्यवक्तियों में से एक है। 2008 में स्विटजरलैंड के दावोस शहर में जो आर्थिक सम्मेलन हुआ था, उसमें गेट्स का भाषण सबसे ज्यादा प्रभावशाली रहा। इसमें उन्होने बताया कि पूंजीवाद के सिद्धांत में थोड़ा परिवर्तन अगर कर दिया जाए तो पूंजीवादी व्यवस्था अच्छी है। और अपने इस सिद्धांत का नाम दिया- उदारवादी पूंजीवाद। सवाल है कि क्या पूंजीवाद कभी उदारवादी हो सकता है और अगर उदारवादी हो गया तो वो पूंजीवाद कैसा ?
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बिल गेट्स संसार के पूंजीपतियों से आग्रह करते हैं कि वे यानी पूंजीपति गरीब लोगों के हाथ से उनकी क्रय शक्ति को न छीने। अगर क्रय शक्ति को छीनने का प्रयास किया गया तो इसका बुरा परिणाम संसार के अमीरों को भुगतना होगा। क्योंकि मरता क्या न करता। अत: संसार के हर उद्योगपतियों और हर व्यपारी का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह धन कमाने की चाह में इन अभागे और गरीब लोगों की अपेक्षा न करे। संसार में स्वस्थ्य सेवा में जो उन्नति हुई उसका लाभ गरीब लोगों को भी मिलना चाहिए। उसी तरह शिक्षा का लाभ भी इन गरीब लोगों को मिलना चाहिए। पूंजीपतियों को ऐसे सामान बनाने चाहिए जो आसनी से गरीब लोगों की पहूंच के अंदर हो जिसे वे खरीद सके।

अपना उदाहरण पेश करते हुए बिल गेट्स ने अपनी एक वसीयत बनायी जिसमें उन्होने लिखा है कि उनकी और उनकी पत्नी के देहांत के 50 वर्ष बाद उनकी सारी संपत्ती संसार के गरीब और अभावग्रस्त लोगों में बांट दी जाए। ये इंक्लाबी बदलाव बिल गेट्स में तब आया जब उन्होंने भारत और अफ्रीकी महादेश के विभिन्न देशों का दौरा किया।

पूंजीवादी व्यवस्था में बिल गेट्स जैसे पूंजीपति को उदारवादी शब्द का इस्तेमाल करना पड़ा क्यों ?

क्यों अब पूंजीपति को उदारवादी होने की जरूरत महसूस हो रही है

सवाल है कि पूंजीवाद अगर उदार हुआ तो पूंजीपति का क्या होगा और बिना पूंजीपति के पूंजीवाद कैसे संभव है।

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