बुधवार, 9 दिसंबर 2009

धर्मनिरपेक्षता बनाम पंथनिरपेक्षता

धर्मनिरपेक्षता बनाम पंथनिरपेक्षता

प्राचीनकाल में राजसत्ता में धर्मसत्ता की भागीदारी अनिवार्य रूप से रहती थी। साधु-संत और पुजारी सलाहकार के रूप में हावी रहता था। बगैर साधु-संत के राजा एक कदम आगे नहीं जा सकता था और पुरोहित वर्ग का ही दबदबा रहता था। इसलिए जब ईसा मसीह ने जनता के पक्ष में आवाज उठाया तो उन्हें धर्म विद्रोही घोषित कर राजा के द्वारा उन्हें फांसी पर लटकाया गया था। आज भी उनकी कब्र पर धर्मद्रोही शब्द ही अंकित है। यही हाल महान वैज्ञानिक गैलिलयों का था जब उसने प्रतिपादित किया कि पृथ्वी ही सूर्य के चारों ओर भ्रमण (चक्कर) लगाती है और सूर्य स्थिर है तो पुरोहित वर्ग ने मौत का फतवा जारी किया और अपनी बातों को वापस लेने के बावजूद उन्हें जेल की सजा हुई। उसी मौत के फतवे को इसाई चर्च का प्रधान वेटिकन सिटी का पोप पूरे 400 साल के बाद लगभग 20-30 साल पहले वापस लिया, जब दुनिया में विज्ञान सम्मत मान्य हुआ कि पृथ्वी ही सूर्य का चक्कर लगाती है।

 समय के साथ चर्च की शक्ति का ह्रास हुआ। इसलिए जब औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजीवादी लोकतंत्र मजबूत स्थिति में आया तो राजसत्ता में धर्म के हस्तक्षेप को अमान्य कर दिया गया और साधु-संत, पुजारी को जो सांसारिक कार्यों से विमुख रहता है, राजनीति में धर्म के हस्तक्षेप को अमान्य कर दिया। इसे ही हम धर्मनिरपेक्षता के नाम से जानते हैं। लोकतंत्र में राज्य का कोई धर्म नहीं होता है इसलिए राजकाज के कार्यों में धर्म चाहे कोई हो या धर्मसमुह हो, हस्तक्षेर को अस्वीकार कर दिया गया जिसे हम धर्मनिरपेक्षता के नाम से जानते हैं।

पंथनिरपेक्षता- किसी देश का राजधर्म भले हो या न हो, लेकिन अन्य धर्म (पंथ) के प्रति कोई दुर्भावना नहीं होगी और राजकार्य में समान रूप से भागीदारी स्वीकार होगी और अपने-अपने पंथ का प्रचार कर सकते है जैसा कि लोकसभा चुनाव के पूर्व आरएसएस के राजनीतिक मंच के प्रधान लालकृष्ण आडवाणी ने करीब एक हजार साधु-संत, महंतों को पत्र भेजा था कि वे राजकार्य में सलाह देने के लिए सलाहकार मंडल का गठन करेंगे और सलाहकार मंडल में हिन्दू ही नहीं बल्कि इस्लाम धर्म के पुरोहित को भी पत्र भेजा गया था सलाहकार मंडल में भागीदारी के लिए। इसलिए आरएसएस के मंच से हमेशा धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर पंथनिरपेक्षता का राग अलाप किया जाता है।

इसलिए जहां प्रथम धारा की पार्टी कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता पर जोर देता है, आरएसएस का राजनीतिक मंच पंथनिरपेक्षता शब्द का इस्तेमाल करता है, वहीं तीसरी धारा की पार्टी धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ सामाजिक न्याय का भी नारा देता है, क्योंकि धर्म से सबसे ज्यादा प्रभावित सामाजिक न्याय का ही वर्ग होता है। इसलिए आरएसएस और सिमी इस अर्थ में एक साथ नजर आता है, क्योंकि दोंनो ही वर्ग के लिए धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र और सामाजिक न्याय अमान्य है। इसलिए करीब 600-700 वर्षों के इस्लामिक शासनकाल में कभी धर्मयुद्ध नहीं हुआ।

इसलिए धर्मनिरपेक्षता की जितनी आवश्यकता सामाजिक न्याय की जनता को है, हिन्दू- मुसलमान के कुलीन वर्ग को नहीं।

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