मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

संवेदनहीन निम्न वर्ण और मीडिया

संवेदनहीन निम्न वर्ण और मीडिया

मिरगी के रोगी को जब दौरा आता है तो वह अपना हाथ आग में डाल देता है और उसे कोई एहसास नहीं होता जबकि आग अपने धर्म के मुताबिक हाथ को जला देता है और फफोले हो जाते हैं और फिर दौरा खत्म होने के बाद दु:ख झेलने के लिए अभिशप्त होता है और कराहता है लेकिन कोई फायदा नहीं होता है।

लेकिन संवेदनशील नेतृत्व (वामपंथ) और हिंदी पट्टी में अपने ही कुशल नेतृत्व में संवेदनशील होकर आवाज उठाती है तो कहीं नक्सलवादी, माओवादी, उग्रवादी,और जातिवादी कहकर कुलीन शासक वर्ग उस पुलिस और सेना के सहयोग से कुचलने का प्रयास करता है। लेकिन विचारों को सांमतवादी और पूंजीवादी हथियार खत्म नहीं कर सकते हैं इसलिए निम्म कौम को संवेदनहीन बनाए रखने के लिए पूरे हिंदी पट्टी में धर्म का घूंट पिलाया जाता है और मीडिया जगत में रोटी के बदले धर्म का प्रचार किया जाता है, तभी तो झारखंड, छत्तीसगढ, राजस्थान, पंजाब और मध्यप्रदेश आदि प्रांतों में आरएसएस के राजनीतिक मंच यथास्थितिवादी के पक्ष में वोट डालती है। यही नहीं निम्न कौम दलित-आदिवासियों को वोट से वंचित करने के लिए चुनाव आयोग और नौकरशाह के द्वारा मतदाता सूची से नाम गायब किया जाता है और यदि मतदाता सूची में नाम दर्ज है तो फिर फोटो खिंचवाने के बाद पहचान पत्र ही नहीं दिया जाता है और बिना पहचान पत्र के उसे मतदान से भी वंचित किया जाता है। एक उदाहरण है बेगूसराय विधानसभा क्षेत्र के जगदीशपुर गांव बूथ नम्बर पर 1332 मतदाता है जबकि मात्र 48 मतदाताओं को ही पहचान पत्र दिया है और अन्य सभी मतदाता जब मतदान बूथ पर पहुंचे तो उन्हें मतदान देने से रोक दिया गया। फिर इन निम्न वर्ग के मतदाताओं ने मतदान का बहिष्कार कर दिया। ये बहुसंख्यक मतदाता वामपंथ से प्रभावित थे। यही जनता जब संवेदनशील होकर अत्याचार के खिलाफ विद्रोह के लिए आवाज उठाती है और जीने का हक मांगती है तो उसे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारा जाता है और सैन्य प्रयोग करने की बात की जाती है।

कुलीन वर्ग और कुलीन वर्ग का मीडिया (विशेषकर अंग्रेजी मीडिया)  जिसके हाथ में सत्ता की चाभी है। हिन्दुस्तान को पाकिस्तान बनाने की ओर अग्रसर नहीं करे, यदि 90 प्रतिशत नस्ल को सैन्यबल से खत्म कर दिया गया तो फिर वह राज किस पर करेगा। गृहयुद्ध दोनों ही वर्ग का शुद्धिकरण कर देगा।

नक्सलवाद 1967 से शुरू हुआ था और तत्काल वामपंथी ताकत सीपीएम को कमजोर करने के लिए दिल्ली के शासन से सहयोग भी मिला था, लेकिन विचार कभी मरता नहीं है चाहे सीपीआई हो या सीपीएम हो या आज का माओवादी सभी एक ही विचार का प्रतिनिधित्व करता है कि 90 प्रतिशत जनता को जीने का हक प्राप्त हो। आज वामपंथ को कमजोर करने के लिए कुलीन वर्ग नक्सलवाद को हवा देता है और फिर उसी नक्सलवाद के नाम पर एक विराट नस्ल दलित-आदिवासी को अमेरिका के रेड इंडियन की तरह मिटाना चाहता है, लेकिन भारत रेड इंडियन का देश नहीं है, यहां सामाजिक न्याय और वामपंथ दोनों का वजूद है। माओवाद सैनिक कार्यवाई और पैसे के प्रलोभन से खत्म नहीं हो सकता। इसे प्रगतिशील विचार और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध शक्ति ही खत्म कर सकती है। पूंजीवादी विचार समतावादी माओवादी उग्रविचार का सामना नहीं कर सकता।

भारत में 1962 के भारत-चीन युद्ध में वायुसेना का प्रयोग नहीं किया गया था। सीमा पार आतंकवादी अड्डे को खत्म करने के लिए वायुसेना का प्रयोग नहीं होता, लेकिन अपने देश के भूखे नागरिकों के शिविर छत्तीसगढ, झारखंड के नक्सली अड्डे को नष्ट करने के लिए सैन्य प्रयोग (ग्रीनहंट) की बात की जाती है। कई इलाकों में यह प्रयोग शुरू भी हो चुकी है, मीडिया के कैमरे का रूख उस तरफ जरूर होना चाहिए।

1950-52 के दौर में नागा उग्रवादी के खिलाफ सैन्य कार्यवाई की गयी जिसमें भारत सरकार की जगहंसाई हुई थी। देश के संसद पर हमला करने वालों, राजधानी मुंबई पर हमला करने वाले को अभी तक फांसी नहीं हुई, लेकिन 1972 में आंध्र प्रदेश के दो नक्सली नेताओं को फांसी की सजा हुई। एक छोटे अपराध के नाम पर जेल और फांसी की सजा होती है जिसमें दो-चार की हत्या हुई हो या लाख दो लाख रूपये की लूट हुई हो उसे फांसी की सजा होती है वहीं दूसरी ओर करोड़ों-अरबों रूपये लूटकर विदेशी बैंक में काले धन के रूप में जमा करने वाले आर्थिक अपराधी मौज-मेले में अपना जीवन गुजर बसर कर रहें हैं, यह नहीं हो सकता है और हो सके तो आगे आने दिनों में इसके खिलाफ आवाज उठे।

राजधानी में 19 नवंबर 2009 को उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान उपज के दाम बढाने की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर डटे तो अंग्रेजी अखबारों ने अपनी खबर के इंट्रो से लेकर आखिरी पैरा तक उनको दंगाई और उत्पाती बना डाला। दूसरे अंग्रेजी अखबार ने लिखा कि 12 हजार की तादाद में किसान राजधानी में उतरे। पूरे तीन घंटो तक दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस में उत्पात मचाया- सार्वजनिक संपत्तियों को तहस-नहस किया, दुकानों को लूटा और महिलाओं के साथ छेड़खानी की। अंग्रेजी अखबारों ने इसके साक्ष्य तलाशे बकायदा तस्वीरों से साबित किया कि देखिए यह प्रदर्शनकारियों की भीड़ नहीं बेवड़ों की जमात है जो नशे के झोंक में पार्कों में शराब डालती है।

ये हमारे देश की मीडिया है जिसे अपना हक मांगती गन्ना किसान दंगाई नजर आती है। समय को इस पर सोचने की जरूरत है।

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