क्या होता है ये वाद
नक्सलवाद, माओवाद, उग्रवाद और आतंकवाद
भाग 1
किसी भी घटना की व्याख्या दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। इसलिए नक्सलवाद की व्याख्या भी एक राजनीतिज्ञ की नजर में अपराध है। शासक वर्ग की नजर में देशद्रोह है जबकि एक दार्शनिक की नजर में भौतिक प्रगति के लिए आवश्यक तत्व है। जैसा कि भूतपूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने धर्म तुलनात्मक दृष्टि में लिखे हैं कि - थोड़ी सी भौतिक प्रगति के लिए अनेक भौतिक ........ की आवश्यकता होती है जिसे हम क्रांति, विद्रोह और अराजकता कहते हैं। यही वे साधन हैं जिसके द्वारा प्रगति होती है। पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल की नजर में नक्सलवाद देश के अंदर गरीबों की आवाज है, लोगों की असंतुष्टि है जिसको संतुष्ट करना हमारा काम है।
किसी भी शासन के प्रति प्रतिकार करना शासक वर्ग की नजर में अपराधी, आतंकवादी, उग्रवादी होता है। इसलिए अंग्रेजों की नजर में भगत सिंह, चन्द्रशेखर, सुखदेव आदि अपराधी ही थे। जबकि आजाद भारत में वे सभी क्रांतकारी और देशभक्त कहे जाते हैं। इसलिए नक्सलवाद भी तात्कालिक शासन के प्रति विद्रोह ही है। यद्यपि किसी भी विद्रोही का कोई अपना फायदा नहीं होता है। लेकिन जब छोटे-छोटे समूह में विद्रोह पनपता है तो विद्रोह की लपट से बचने के लिए शासक वर्ग, उस वर्ग के लिए जिसका कि वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं कुछ सुविधा प्रदान कर विद्रोह की आग को थोड़े समय के लिए शांत किया जाता है जबकि बिना विद्रोह के सरकार कोई ध्यान ही नहीं देती है। इसलिए राजनीतिज्ञ की अपेक्षा एक विद्रोही कमान्डर जन कल्याण को अधिक प्रभावित करता है।
पश्चिम बंगाल में माओवाद के नाम से आदिवासी ने जब जनविद्रोह किया तो सरकार ने भी आदिवासियों की समस्या को समझने की कोशिश की। आज देश में 112 करोड़ की आबादी में 85 करोड़ जनता सिर्फ 20 रूपया प्रति व्यक्ति के हिसाब से जी रही है। यह स्थिति जनता के जीने के अधिकार से वंचित करने जैसा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि जीने का मतलब केवल जीना नही है बल्कि जीने के लायक जीना ही जीवन जीना है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात को स्वीकार को किया है कि नक्सली देश के दुश्मन नहीं है बल्कि इसके नागरिक हैं और केन्द्र सरकार से कहा है कि बातचीत करके उनकी समस्याओं को जानना चाहिए और उनको हल करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सलाह दी है कि वह नक्सलवाद को केवल कानून व्यवस्था की समस्या मानने के बजाय उससे सहानुभूतिपूर्वक निपटे। जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी और एसएस निज्जर की बेंच ने केन्द्र से कहा है कि नक्सलवाद के खिलाफ सुरक्षा बलों द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में तो उसने बहुत कुछ सुना है, लेकिन गरीब आदिवासियों के विकास की खातिर लिए गए फैसलों को बारे में कुछ सुनने में नहीं आया। कोर्ट के मुताबिक करीब दो लाख लोग अपने घरों को छोड़कर कौंपों में रह रहे हैं। उनके पास काम करने को कुछ भी नहीं है। (17-02-2010 दैनिक भास्कर ) । अफसोस की बात है कि सुप्रीम कोर्ट भी आदिवासियों के विकास की खातिर लिए गए केन्द्र सरकार के फैसलों के बारे में नहीं जानती है।
क्रमश: जारी है.....

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