भाग 1
कार्ल मार्क्स ने भारत के सर्वहारा के बारे में टिप्पणी की थी कि भारत में क्रांति की संभावना नजर नहीं आती, क्योंकि भारतीय सर्वहारा (शूद्र) वर्ण व्यवस्था के तहत सीढ़ीनुमा हजारों भागों में विभाजित है। इसलिए ज्योति बसु के बारे में दक्षिण मीडिया में जब बंगाल की स्थिति और ज्योति बसु के कार्यकाल की चर्चा की जाती है तो ज्योति बसु के लम्बे कार्यकाल को नकारा साबित करने की कोशिश की जाती है। ये कहा जाता है कि ज्योति बसु ने मुख्यमंत्री रहते हुए पश्चिम बंगाल का कोई भला नहीं किया अगर गलती से 1996 में प्रधानमंत्री बन गए होते तो संभव है कि भारत का वही हाल करते जो पश्चिम बंगाल का किए।
विरोध करने वाले इस बात को भूल जाते हैं कि ज्योति बसु भारत के माओत्से तुंग, लेनिन या होची मिन्ह नहीं थे क्योंकि इन सबने क्रांति या एक लंबी लड़ाई के बाद ही सत्ता को प्राप्त किए थे। कहने का मतलब है कि लड़कर उन्होंने तख्तापलट किया था। जिस तरह चीन में सर्वहारा क्रांति हुइ थी या फिर रूस में 1917 में क्रांति हुई थी, क्या उसी प्रकार की कोइ क्रांति बंगाल में ज्योति बसु के द्वारा हुई थी, जो ज्योति बसु से हम माओत्से तुंग, लेनिन या होची मिन्ह के कार्यों जैसा स्वप्न देखने लगते हैं। ज्योति बसु ने कोई क्रांति करके सत्ता को नहीं प्राप्त किए थे जो कि सत्ता में आने के बाद कोई आमूल-चूल परिवर्तन करते। ज्यति बसु सत्ता में भागीदारी के तौर पर आए थे न कि कोई क्रांति करके।
इसलिए ज्योति बसु से विशेष प्राप्ति की आकांक्षा रखना भी ठीक नहीं। लेकिन एक व्यक्ति जो इंगलैंड बैरिस्टरी पढ़ने गया और मार्क्सवादी होकर लौटा और 70 के दशक में बंगाल की शोषित सर्वहारा को संगठित किया जिसका फल था खुद 23 साल शासन और 32 साल से अधिक समय तक बंगाल में स्थिर शासन। पिता उन्हें अंग्रेजों की प्रशासनिक सेवा आइसीएस का अफसर देखना चाहते थे। आइसीएस की परीक्षा में विफल होने के बाद उन्हें बैरिस्टरी बनाने के उद्देश्य से 1935 में कानून की पढ़ाई करने के लिए लंदन भेजा गया था। वहां वे ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के भारतवंशी नेता रजनी पाम दत्त के संपर्क में आए। वहां से 1940 में स्वदेश लौटने पर ज्योति बसु राजनीति में उतरने का फैसला कर लिया और आजीवन शोषित सर्वहारा के लिए लड़ते रहे।
आजाद भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत जो सबसे बड़ा काम उन्होंने किया था वह था भूमि सुधार कानून को बनाकर बंटाईदारी बिल को पास करना। इस कानून से 15 लाख परिवारों को एक तरह से उन्होंने जमीन का मालिक बना दिया। ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि भारतीय सर्वहारा को भूस्वामी भूमि से वंचित न कर सके। लेकिन उनके बाद उन्हीं की पार्टी के मु प्रतिक्रियावादी बनकर अपने ही समर्थक दलित - आदिवासी को नक्सलपंथी कहकर जीने के अधिकार से वंचित करता है। स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी न लाने के लिए उनकी आलोचना होती है। आलोचना करने वालों को जानना चाहिए कि दुनिया के किसी भी विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र के बच्चों को विदेशी माध्यम से नहीं पढ़ाया जाता है। राज्य के औद्योगिकीकरण के लिए उनकी आलोचना होती है। लोगों को जानना चाहिए कि भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई मे अगर देश का सबसे प्रतिष्ठित होटल ताज है तो उसी मुंबई में एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी भी है। कर्नाटक की राजधानी बंगलोर जो भारत की सिलिकॉन वैली कहलाती है, बंगलोर को छोड़कर क्या कोई दूसरा डेवलप शहर है पूरे कर्नाटक में।
ज्योति बसु और साम्यवादी दल दोनों को अलग करके देखने की जरूरत है क्योंकि कम्युनिष्ट घोषणा पत्र के अनुसार भारत में समाजवादी दल नहीं बल्कि सामंती समाजवाद है। जिसका नेतृत्व द्विज वर्ग के हाथ में है और जो समुचे पोलित ब्यूरो में स्थापित है जिसे पार्टी का नाम दिया जाता है। इसलिए 1996 में एक ऐसी स्थिति बन गई थी जिसमें संयुक्त मोर्चा के सारे नेता उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए बेताब थे। पार्टी के वरिष्ठ नेता हरकिशन सिंह सुरजित व कुछ अन्य कुछ लोग चाहते थे कि ज्योति बसु प्रधानमंत्री बन जाए लेकिन पोलित ब्यूरो के ज्यादातर सदस्य इसका विरोध कर रहे थे। पार्टी के बाहर के लोगो ने भी जिसमें मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद , वी.पी सिंह, चन्द्रशेखर, देवगौड़ा और करूणानिधि ने उन्हे प्रधानमंत्री बनने के लिए स्वीकार कर लिया था। इसके बावजूद भी उन्हीं की पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने से वंचित कर दिया, जिसे ज्योति बसु ने एतिहासिक भूल कहा था।
क्रमश: जारी है........
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